शिक्षाविद गिजुभाई बधेका: 15 नवम्बर जन्म दिवस विशेष
गिजुभाई बधेका को गुजरात में ‘मूछालीमाँ’ अर्थात ‘मूछोंवाली माँ’ के नाम से जाना जाता है। शिशु व बाल शिक्षा के संबंध में अनेक प्रयोग कर प्रचलित परम्परा से हटकर नई व्यवस्था के साथ शिक्षा पद्धति का आविस्करण किया। कहानी, बाल अभिनय गीत, नाटक और खेल के माध्यम से पढ़ाने की पद्धति प्रस्थापित की। बच्चों के लिए शिक्षक, लेखक, अभिनेता, कवि बने।। उत्तम शिक्षक निर्माण के लिए बाल अध्यापन मंदिर खोले। समाज में जागृति के लिए अभियान चलाया। माता-पिता, शिक्षकों और सरकार को बच्चों के प्रति दायित्व बोध कराया। पढ़ाई और अनुशासन के नाम पर हो रहे जुल्मों से बच्चों को स्वतंत्रता दिलवाने के लिए आन्दोलन कर एक नए मार्ग का निर्माण किया।
गुजरात राज्य के सौराष्ट्र विस्तार के अमरेली जिल्ले के चीतल स्थान में 15 नवंबर, 1885 में उनका जन्म हुआ था। उनका पूरा नाम ‘गिरिजाशंकर भगवानजी बधेका’ था। माता का नाम काशीबा था। महात्मा गांधी की तरह वकालत के झूठे दावों में ज्यादा रूचि नहीं टिकी। अपने पुत्र को उत्तम शिक्षा देने के लिए स्वयं एक शिक्षा शास्त्री बन गए। 23 जून, 1939 को हमने अनूठा बाल शिक्षा शास्त्री खो दिया।
गिजुभाई की बालशिक्षा की विशेषताएँ
वे अपने खुद के अनुभव से मानते थे कि सख्त शिक्षकों व कठोर दंड की व्यवस्था के कारण विद्यालयों के प्रति बच्चों में फैले भय व अरुचि को दूर किए बिना बाल शिक्षा का उद्धार होने वाला नहीं है। इसलिए उन्होंने सबसे ज्यादा जोर दिया।
गिजुभाई के शिक्षण विचारों पर इटली की बाल शिक्षा शास्त्री मेडम मोंटेसोरी का प्रभाव दिखाई देता है। उन्होंने उनके बाल शिक्षा के सिद्धांतों को स्वीकार किया परन्तु देश, काल के अनुसार परिवर्तित कर लागू किया। भारत के बाल मंदिर इटली के बाल मंदिर न बने, इस बात का ध्यान रखा।
गिजुभाई ने बालदेव का साक्षात्कार किया था। सदियों से शिक्षा के नाम से चली आ रही त्रासद परम्परा रटन, वाचन, लेखन, कड़क अनुशासन, दफ्तर व परीक्षा से बालक की मुक्ति करवा कर शिक्षा पर लगे कलंक को हटाने का प्रयास किया।
गिजुभाई ने भाषा वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं रचा, बल्कि भाषा सीखने की उन मूल गतिविधियों को पहचाना। भाषा शिक्षा को सही ढंग से सिखाने के लिए नए प्रयोग किये –
वाचन का सीधा रिश्ता जीवन संदर्भ से ढूंढा और इसलिए सबसे पहले चिट्ठी वाचन की नई पद्धति वाचन की शिक्षा के लिए विकसित की।
लेखन की शिक्षा के लिए गिजुभाई ने अँगुलियों को सक्षम बनाने के लिए रेखाचित्रण, श्रुतलेखन, पत्रलेखन, निबंध लेखन जैसी अनेक विधाओं को प्रभावी ढंग से अमलीकरण किया।
बच्चों की मानसिक आवश्यकता को समझा। छोटी कक्षाओं और बाल मन्दिरों में बाल अभिनय गीतों के प्रभाव को माना। सुन्दर बाल अभिनय गीतों की रचना की, उनका अभिनय किया और बालकों व उनके शिक्षकों को सिखाया।
कहानी द्वारा शिक्षा को बहुत महत्वपूर्ण मानकर शिक्षा को रसपूर्ण बनाने के लिए कहानी का उत्तम शिक्षा विधि के रूप में उपयोग किया।
गिजुभाई मानते थे कि व्याकरण शिक्षा अलग से नहीं देनी चाहिए। भाषा में उसकी रचना और उसका व्याकरण अपने आप बुना होना चाहिए। उस बुनावट की पहचान और पहचान कर इस्तेमाल की समझ विकसित करनी चाहिए।
बाल मंदिरों का वातावरण, अभ्यासक्रम और शैक्षणिक सामग्री संस्कृति के अनुरूप निर्माण की।
उपदेशात्मक के स्थान पर संवेदनात्मक शिक्षा की शुरुआत की।
उन्होंने विद्यालय एक प्रयोगशाला कहा जहाँ शिक्षक को बच्चों के व्यवहारों का अवलोकन कर उसके कारणों को समझता है। इनके मनोजगत का अभ्यास वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करता है। वे मानते है कि बालकों में हम कृत्रिम व्यवस्थाओं, परम्पराओं और मान्यताओं के नाम से हम उनके मन में लिंग, जाति, धर्म, भाषा आदि के भेद खड़े करतें हैं। वातावरण, शिक्षक का आचरण और व्यवस्था से बालकों में संस्कारों का निर्माण होता हैं। यह मनुष्य निर्माण की प्रयोगशाला हैं जहाँ संस्कारों की प्रधानता आवश्यक होती हैं। इस प्रकार बाल मदिर सामाजिक समरसता और संस्कार का आधार बनाने का सफल प्रयोग कर दिखाया।
उन्होंने बाल मंदिरों में बच्चों को सफाई, बागायती काम, पानी भरना, वस्तुओं को स्वयं ही ठीक से रखना आदि काम करने की व्यवस्था खड़ी कर शिक्षा को प्रारम्भ से ही स्वावलंबी बनाया। बालमंदिरों का वातावरण व व्यवस्था इस प्रकार खड़ी हो जिससे बच्चों को अनुशासन की आदत पड़ जाये। प्रवृति में बालक तन्मय कर स्वयं-अनुशासन का विकास किया।
प्रकृति प्रेमी बालक के लिए पाठशालाओं में पशु, पक्षी और वनस्पति से सानिध्य व बागकाम, खेती, पेड़-पौधों को संभालना आदि द्वारा का शिक्षण देने की व्यवस्था की। बच्चों को भ्रमण द्वारा शिक्षा देने का प्रयास किया। भ्रमण से बालक में आत्मनिर्भरता और एकरूपता का भाव विकसित होता हैं। नदी, वन, प्राणीघर, पर्वत, मंदिर, ऐतिहासिक स्थानों की मुलाकात को अनिवार्य बनाया।
गिजुभाई ने इन्द्रियों के अनुभव द्वारा शिक्षा का आग्रह किया। उनके मतानुसार इन्द्रियाँ ज्ञान का प्रवेश द्वार होती है। इन्द्रियों को ज्ञान प्राप्ति का हथियार बताया। इन हथियारों से संसाररूपी खदान से ज्ञानरुपी रत्न खोद कर निकालने हैं। ये हथियार तीक्ष्ण, सतेज, बलवान, और अधिक बलवान बनाने के लिए प्रवृति द्वारा शिक्षा की शुरुआत की।
गिजुभाई के विशिष्ट प्रयोग
दक्षिणामूर्ति बालमंदिर एक शैक्षणिक प्रयोगशाला
दक्षिणामूर्ति बालमंदिर उनकी शैक्षणिक प्रयोगशाला थी, जहाँ बाल-शिक्षा से संबंधित प्रयोगों किये। सारा जीवन बालकेन्द्रित शिक्षा, शैक्षिक भ्रमण, हस्त कौशल, संगीत, नाटक, रचनात्मक कार्यों, बाल-संग्रहालय, कथा-कहानी द्वारा शिक्षण आदि विभिन्न प्रवृतियों के आयोजन में व्यतीत किया।
दक्षिणमूर्ति अध्यापक मंदिर की स्थापना
शिक्षक प्रशिक्षण के लिए 1925 में उन्होंने दक्षिणामूर्ति अध्यापक मंदिर की स्थापना की। उत्तम प्रकार के बाल शिक्षकों के निर्माण का कार्य किया। शिक्षक प्रशिक्षण का अभ्यासक्रम निर्माण किया। शिक्षक प्रशिक्षणार्थियों को अभिनय गीत, कहानी कथन, नाटक, साधन सामग्री निर्माण व उसके उपयोग, बालकों के साथ व्यवहार आदि के कौशल्यों का प्रशिक्षण दिया।
बाल साहित्य निर्माण
उन्होंने बाल कहानियों, बाल गीतों व बाल नाटकों, यात्राओं व साहसिक अभियानों पर पुस्तकें लिखीं। ‘मोंटेसोरी पद्धति’, ‘दिवास्वप्न’ और ‘कहानी का शास्त्र’ जैसी पुस्तकें उनके शिक्षा विषयक विचारों की स्पष्ट करती हैं। बालकों, शिक्षकों, माता-पिता सभी के लिए बालोपयोगी साहित्य निर्माण किया।
शिक्षक स्थान एक वैज्ञानिक के रूप में
गिजुभाई ने शिक्षक की संकल्पना ही बदल दी। उन्होंने शिक्षक को वैज्ञानिक कहा क्योंकि उसे बालक को पढ़ना नहीं है बल्कि अवलोकन करना है। प्रवृति करते बच्चे का अवलोकन कर उसमें निहित शक्तियों को खोजकर उसे विकसित करना चाहिए।
गिजुभाई के मतानुसार बालक
“बालक बीजरूप होता है। वह हर पल विकसित होने का प्रयास करता है। स्वयं ही अपना समय पत्रक बनाता है। व्यवस्था में नियम भी स्वयं ही बनता है। वह स्वतंत्रता प्रेमी होता है। प्रवर्तमान इनाम, स्पर्धा, दंड आदि उसके विकास के अवरोधक हैं। बाहर के कारक के बिना स्वेच्छिक प्रयास और पुनरावर्तन से अनुभव द्वारा जो सीखता है वही टिकता हैं।”
बालकों का स्वतंत्र व्यक्तित्व होता हैं। उनकी अपनी एक दुनिया होती हैं वे उसी में खुश रहतें हैं। उनकी अपनी पसंद नापसंद होती हैं जिसके पीछे निश्चित कारण होते हैं। बालक प्रवृतिमय रहता हैं इसका उदगम उनका अंतर्मन होता है; प्रत्येक प्रवृति के पीछे विकास की झंखना होती हैं।
गिजुभाई ने गुजरात में बाल शिक्षा को एक नई ऊर्जा भरने काम किया। सर्कस के प्राणियों की तरह तालीम बद्ध करने की परम्परा को बदलने का प्रयास किया। उसके वर्तन व्यवहार का अवलोकन कर प्रेम, स्नेह, सहनुभूतिपूर्वक सँभालने की बात शिक्षा जगत में प्रस्थापित की। मेडम मोंटेसोरी जैसी विदेशी शिक्षा से प्रेरणा लेकर उसे भारतीय परिवेश में ढाल कर सफल कर दिखाया। केवल सिद्धांत ही नहीं प्रत्यक्ष कर दिखाया। बालकों के लिए नई पद्धति विकसित की। शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण कॉलेज की स्थापना की। उपयुक्त भवनों की रचना की। साहित्य का निर्माण किया। साधनों का विकास किया। बच्चों के विकास के लिए जो भी करने योग्य था सब कुछ किया। पूरा जीवन बालदेव की आराधना में समर्पित किया।
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