आरएसएस के बारे में भ्रम दूर करें, सरल सत्य पढ़ें

जो लोग संघ  को नही जानते है वे समय-समय पर बुद्धि पिशाचों द्वारा रचे गए षड्यंत्र को सच मानकर भ्रमित हो जाते हैं। इसलिए आवश्यकता है कि आप और हम कुछ सामान्य बातों को, संघ पद्धति को, प्रक्रिया को सरल शब्दों में समझ लें। वैसे तो संघ को समझना है, तो शाखा आना ही होगा फिर भी इस आलेख में अल्प प्रयास किया गया है।



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  आरएसएस ने अपने प्रारंभ में ही तय कर लिया था कि "संघ कुछ नहीं करेगा स्वयंसेवक कुछ ना छोड़ेगा।" संघ केवल व्यक्ति निर्माण करेगा। राष्ट्र के लिए जैसा चरित्र चाहिए वैसे व्यक्तियों के निर्माण की कार्यशाला, जिसे आप और हम शाखा नाम से जानते हैं, केवल उसी शाखा को चलाना संघ ने तय किया।
जैसे-जैसे स्वयंसेवकों का निर्माण होता गया का निर्माण होता गया वैसे वैसे समाज के विभिन्न क्षेत्रों की ओर ध्यान गया। जिन जिन स्वयंसेवकों को जैसा जैसा समझ में आया और आवश्यकता लगी, उन उन क्षेत्रों में वैसा वैसा संगठन खड़ा होता गया। जैसे विश्व हिंदू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, संस्कार भारती, संस्कृत भारती, भारत सेवा परिषद आदि आदि।
यह भी प्रारंभ से समझ लेना आवश्यक है कि ये संगठन संघ के संगठन नहीं है। यह स्वयंसेवकों द्वारा खड़े किए गए संगठन हैं। जिनका अधिष्ठान समान है। जिनका उद्देश्य भारत माता की जय है। जिनका उद्देश्य हिंदू समाज का उत्थान है। आवश्यकता पड़ने पर ये संगठन संघ से अच्छे कार्यकर्ताओं की मांग करते हैं और उपलब्धता के आधार पर उन्हें निर्मित कार्यकर्ता बताए जाते हैं। क्योंकि कार्यकर्ता स्वयंसेवक भी होते हैं इसलिए इन स्वयंसेवकों का स्वयंसेवकत्व बना रहे, उत्तरोत्तर गुणों में में वृद्धि होती रहे, उनकी संभाल होती रहे। स्वयंसेवकों का आपस में समन्वय भी बना रहे। संघ इन सब के प्रयास अवश्य करता है। लेकिन किसी भी प्रकार से उन संगठनों के नियमित कार्य, योजनाओं, निर्णयों आदि में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता है।



संघ की विद्यार्थी शाखा जिसके स्वयंसेवक विद्यालय के विद्यार्थी होते है। इस का संचालन उस शाखा के मुख्यशिक्षक और शाखा कार्यवाह करते हैं। वह भी सामान्यता दसवी और ग्यारवीं के विद्यार्थी ही होते हैं। उनके साथ उनके समवय या उनसे कम आयु के स्वयंसेवकों की पांच से सात की संख्या में एक शाखाटोली होती है। यह शाखा टोली ही शाखा के संचालन संबंधी समस्त निर्णय लेने की अधिकारी होती है। इस छोटी आयु में ही टोली का निर्माण करना, टोली के लिए स्वयंसेवक पहचान करना, टोली का संचालन करना, टोली की बैठक करना आदि यह सब कुछ मुख्य शिक्षक और कार्यवाह स्वयं करते हैं। इस प्रकार कुशल नेतृत्वकर्ता के गुण उनमें निरंतर संग्रहित, वर्धित होते रहते हैं। बालपन से ही एक स्वयंसेवक इस प्रकार कुशल नेतृत्वकर्ता बन कर विकसित होता है। यही क्रम इसके ऊपर के स्तर जैसे ग्राम, मंडल, खण्ड, जिला, प्रांत और राष्ट्र स्तर तक समान रूप से स्तर तक समान रूप से स्तर तक समान रूप से समान रूप से शिखर तक चलता जाता है। हर स्तर की अपनी टोली और टोली द्वारा कार्य करना।



शाखा का कोई भी निर्णय अकेले नहीं लिया जाता है। इसका अर्थ यह है कि संघ में कोई हाईकमान नहीं होता है। सभी निर्णय उस स्तर की टोली लोकतांत्रिक पद्धति से लोकतांत्रिक पद्धति से और सहमति के आधार पर करती है। एक शाखा पर होने वाले सभी कार्यक्रमों का निर्णय भी शाखा टोली के द्वारा ही लिया जाता है। कोई भी निर्णय ऊपर से थोपा नहीं जाता है। किसी नगर, किसी जिले, की टोली के निर्णय का और यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिनिधि सभा तक यही तरीका है। निर्णय होने से पहले पर्याप्त चर्चा होती है और निर्णय होने के बाद वह निर्णय सबका समान रूप से से हो जाता है। सहमत होकर सभी समान रूप से कार्य में लग जाते हैं। यूं कहें कि सच्चा लोकतंत्र संघ में जिया जाता है। निर्णय होने के बाद असहमति नहीं रहती है। सभी समान रूप से कार्य में लग जाते हैं। यह प्रवृत्ति शाखा से शिखर तक एक समान एक रुप से देखी जाती है, अनुभव की जाती है। सफल या असफल होने पर कोई भी इस तरह कहता हुआ सुनाई नहीं देता कि हमने तो पहले ही कहा था...., क्योंकि स्वयंसेवक में प्रारंभ से ही निर्णय की सामूहिकता का संस्कार बनता जाता है।



शाखा समाज के उपयोगी बने के उपयोगी बने इस दिशा में निरंतर चिंतन होता रहता है। इस हेतु योजना बना बनाई जाती है और विभिन्न कार्यक्रम हाथ में लेकर हिंदू समाज के सर्वांगीण विकास में सहयोगी बन सकने हेतु नए नए प्रयोग करने की स्वतंत्रता एक शाखा को होती है। नवाचार करने की स्वतंत्रता एक शाखा टोली से लेकर प्रत्येक स्तर तक समान रूप से है।

शाखा में जब दो दल खेलते हैं तब एक दल का विजय होना स्वाभाविक ही है। जीत का अहंकार अथवा किसी को हराने का भाव न रहे रहे, इसे दूर करना आवश्यक है। विजय के श्रेय से दूर रहने का भाव जागृत करने के लिए गण शिक्षक जोर से आवाज लगाकर पूछता है, कौन जीता? स्वयंसेवकों से उत्तर मिलता है, संघ जीता। शाखा के एक स्वयंसेवक में स्वयं के विजयी होने का अहंकार विलीन हो, तभी वह समाज के लिए कुछ करने का भाव जागृत कर पाता है। यह सब कुछ भारत माता को सर्वस्व देने और भारत माता की जय होने तक की यात्रा में प्रारंभिक बिंदु की तरह कार्य करता है। यह यात्रा जीवन भर सतत् सतत् चलती रहती है। यही कारण है कि बड़े-बड़े अभियानों के सफल होने के बाद भी स्वयंसेवक उसका श्रेय लेने के लिए कभी लेने के लिए कभी लालायित नहीं होता उस और रुचि नहीं करता नहीं करता नहीं करता है। वह तो केवल भारत माता की जय चाहता है। चाहे राम सेतु आंदोलन हो, चाहे राम मंदिर आंदोलन हो, अथवा चरखी दादरी में की गई सहायता हो, अथवा गोवा दमन दीव मुक्ति का विषय हो, छोटे से बड़े स्तर तक कभी भी स्वयंसेवकों ने श्रेय लेने का प्रयास नहीं किया। वे केवल भारत माता की जय के लिए कार्य करते हैं और इस हेतु अपना तन मन धन और जीवन अर्पण करने को तत्पर रहते हैं। उन्हें श्रेय लेने की लालसा लेश मात्र भी नहीं रहती।



राम मंदिर शिलान्यास कार्यक्रम में हम सब ने स्पष्ट देखा कि आमंत्रण-पत्र के अनुसार पूजनीय सरसंघचालक मोहन भागवत जी मुख्य अतिथि थे। वे तटस्थ भाव से अपनी भूमिका का निर्वहन करते हुए दिखाई दिए। उनका यह व्यवहार ही स्वयंसेवकों को प्रेरित करता है। मुख्य अतिथि की मर्यादा के अनुसार ही संक्षिप्त उद्बोधन दिया, उसी अनुरूप सबके बाद पुष्प अर्पित किए। अत्यंत आदर्श और मर्यादित कार्यक्रम का स्वरूप हम सबको देखने सीखने को मिला।
शाखा किसी कार्यक्रम को यशस्वी करती है, इसके बाद वरिष्ठ कार्यकर्ता को अपना व्रत निवेदन कर देती है। वरिष्ठ कार्यकर्ता द्वारा प्रतिउत्तर में यही सीख मिलती है कि कार्यक्रम श्रेष्ठ रहा, अब आगामी कार्य की तैयारी में लग जाओ। यही व्यवहार शाखा से शिखर तक निरंतरता से देखने को मिलता है। स्वयंसेवक किसी दायित्व का निर्वहन करते हुए अपने कार्य को पूर्ण मनोयोग से तन मन धन पूर्वक तो करता ही है। लेकिन कार्य को करते हुए अन्य स्वयंसेवकों के गुण वर्धन और उनकी उन्नति का चिंतन भी निरंतर करता है। उसकी दृष्टि सदा इस प्रकार रहती है कि मेरे कार्य को और कौन-कौन संभाल सकते हैं। सानिध्य के प्रभाव से अन्य स्वयंसेवकों का विकास होना उसके गुणों का विकास होना यह वैशिष्ट्य भी शाखा से शिखर तक निरंतरता में समरूप से अनुभव में आता है। ऐसे ही सैकड़ों विषय हैं, सैकड़ों उदाहरण है, जो दर्शाते हैं कि संघ का स्वरूप एक स्वादिष्ट और पोषक गुणों से भरपूर तरल पेय पदार्थ से भरे हुए गिलास के समान है। जिसका हर घूंट में स्वाद और पोषकत समान है। इस आलेख में व्यक्तिगत उदाहरणों को उद्यत नहीं करने के पीछे भी भाव यही है कि संघ को व्यक्ति से परे जाकर समझा जाए। संघ कोई व्यक्ति केंद्रित नही है। जैसा एक शाखा दायित्ववान आदर्श स्वयंसेवक है वैसा ही शिखर पर कोई दायित्ववान स्वयंसेवक है। शाखा से शिखर तक संघ एकरूप है।

लेखक
मनमोहन पुरोहित (मनुमहाराज)
7023078881
सदस्य- मरुभूमि राइटर्स फोरम

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