जुझार गाथा

आज फिर एक क्रन्दन हुआ।
"मेरी गायें बचा लीजिए!" 



महिला स्वर में। कहने वाली ने कहकर अपना कर्त्तव्य पूरा कर लिया।
काश ! मेरा भी कर्त्तव्य इतनी जल्दी पूरा हो पाता।
वो नहीं जानती कि इस एक वाक्य के बाद इतिहास आरम्भ होने वाला है।
वो इतिहास जिसे बाद वाली पीढ़ियाँ इतिहास मानने से ही इनकार कर देगी।
मेरे रावले से दो ऑंखें झिर्री में से आशंकित हुई।
उसकी अनुमति भी नहीँ ली।
चार नन्हे हाथ बेफिक्र हलचल कर रहे थे।
ये जाने बिना कि "जी सा" अब कभी नहीं आने वाले।
घोड़ा और तलवार।



न कोई संगी न साथी।
तीन प्रहर दिन गए।रावले में समाचार पहुँचा।
सारी गायें बचा ली गई।
"रावल जी" नहीँ रहे।
वो सारी बातें हुई जो ऐसे मौके पर होती है।
सर कहीँ और गिरा तो धड़ कहीँ और।
वर्षों बाद किसी ने एक चबू5तरा बनाया,जहाँ शीश गिरा था।
जिसकी गायें थी,उसके वंशजों ने नहीँ।
वे तो किसी महानगर में शिफ्ट हो गए हैं।
एक एन जी ओ चलाते हैं,सामन्त शाही के खिलाफ।
"थान"तो एक एस टी के परिवार ने बनाया।
वे हर वर्ष आते हैं।अपनी "ग्राम्य" भाषा में रात भर करुण और हृदय विदारक Uस्तुति गाते हैं।
वे गाते है वीर गाथा।
क्यों कि उनके बच्चे आधुनिक स्कूल में नहीँ पढ़ते हैं।
उसी गाथा से पता चला।
ये कि जिसके साथ फेरे हुए वो जीवन का 36वां वर्ष नहीँ देख सकी।
सती हो गई थी।
जिसकी चर्चा भी अब अपराध है।
दोनों कुँवर में से एक तो 15वें वर्ष में पिता के पथ का अनुसरण कर गया।
दूसरे की बात ही न करो।
आँसू कम पड़ जाएंगे।
"किसी ने खाटी छाछ भी न डाली।"
जब ये सुनता हूँ तो प्रतिमा फाड़ कर बाहर आने को जी चाहता है।
बंधा हूँ,प्रकृति के नियम से।
चबूतरे के चारों और की भूमि गोचर थी।
आज वहाँ प्रोजेक्ट सेंक्शन हुआ है।
कॉलोनी कट गई है।
गगनचुम्बी इमारतें और विकास के कारखाने खुल गए हैं।
चबूतरे के बिलकुल बगल में एक साई बाबा का मन्दिर बन गया है।
सोलह श्रृंगार युक्त ललनाएँ आती है वहाँ।
बड़ी सी दान पेटी और सुबह शाम की आरती होती है।
मेरे चबूतरे पर भक्त अपने जूते और बेल्ट रख जाते हैं।
थोडा आगे एक दारू का ठेका है।
कभी कभी रात ढ़ले महफ़िल सजती है।
मेरे चबूतरे पर।चार लोगों की।
दुनिया भर की बातें करते हुए पैग लगते हैं।
उनसे ही पता चला
अच्छा शासन आ गया है।
अब गायें बचाने की गुहार नहीँ होती।
लोक में ।
नई व्यवस्था है।
फार्म भरे जाते हैं।बात बात में।
गएँ बची न गौचर।
वर्ष में एक दिन चबूतरे की सफाई होती है।
कुछ मैले कुचैले लोग आते हैं।
नारियल और खोपरे चढ़ते हैं।
रात भर वीर गाथा गायी जाती है।
उनकी औरतें कृतज्ञ भाव से नाचती है।
शायद ये नहीँ भरते कोई फार्म।
तभी तो साई बाबा प्रबन्धन कमेटी के आगे गिड़गिडाटे हैं।
मेले के लिए।


लेखक 
केसरसिंह
जैसलमेर

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