भगवान वेदव्यास ऋषि पुत्र-1




भगवान वेदव्यास यमुना के तट पर ऊंचे ऊंचे वृक्षों की कतारें फैली हुई थी। निकट ही एक छोटी सी झोपड़ी थी। किनारे के पास एक नौका थी। रेत पर मछली पकड़ने का सामान बिखरा पड़ा था। हवा का झोंका आता और अपने साथ मरी हुई मछलियों की तेज दुर्गंध ले फेल जाता था।
वह झोपड़ी आसपास बसे हुए मछुआरों की संपत्ति थी। उस बस्ती के मुखिया का नाम दश था। उसने सत्यवती नामक एक बालिका को अपनी कन्या के समान पाला पोसा था। वह उसकी सेवा करती थी। उस एकाकी झोपड़ी में केवल वे दो ही रहते थे। अन्य झोपड़ियां वहां से दूर थी। मछुए की श्रवण शक्ति तेज थी। उसे बाहर से कुछ आवाज सुनाई दी। उसने अपनी कन्या को बुलाकर कहा- सत्यवती जाकर देख तो क्या बात है?
सत्यवती ने दरवाजा खोला और बाहर देखा पिताजी वहां कोई है।
कौन है?
मैं नहीं बता सकती। मेरा देखा हुआ नहीं है।
वह कैसा दिखाई देता है?
उसने सिर पर बालों का जुड़ा बांध रखा है। उसके गले में जपमाला है। हाथ में दंड और कमंडलु है। पैर में खड़ाऊ है और शरीर पर वल्कल धारण किए हुए हैं।
वृद्ध है या युवा?
युवा हो सकता है। उसकी दाढ़ी और मूंछ छांव में से उसकी उम्र कैसे बता सकती हूं? सत्यवती ने हंसते हुए।
कहा बेटा वह शायद कोई साधु अथवा ऋषि होगा। वह नदी पार करना चाहता होगा। मैं तो भोजन कर रहा हूं, तुम स्वयं चली जाओ। नाव से उसे दूसरे किनारे तक पहुंचा दो। यदि तुम देर करोगी तो वह अप्रसन्न हो जाएगा और हमे शाप दे देगा। जाओ बेटी जल्दी करो।
जीवनसाथी
सत्यवती झोपड़ी से तुरंत बाहर आई। उस व्यक्ति ने नाव की ओर संकेत किया। वह भयभीत अवस्था में आगे बढ़ी और पगहा खोला। वह लपक कर नाव में जा बैठा। सत्यवती भी नाव के एक कोने में बैठी और उसने अपने पतवार खोलकर नाव आगे बढ़ाई। नाव दूसरे तट की ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगी। उसने सत्यवती पर दृष्टि स्थिर कर दी। वह चंद्रमा के समान सुंदर थी परंतु उसके शरीर से दुर्गंध आ रही थी। दुर्गंध असह्य होने के कारण उसने अपनी नाक दबा ली। उसे लगा कि यदि उसके शरीर से दुर्गंध ना आए तो वह एक अच्छी संगिनी होगी। उसने अपनी तप शक्ति से उसे दुर्गंध से मुक्त कर दिया। उसने सत्यवती को कस्तूरी की मधुर सुगंध से युक्त कर दिया। वह समझ गई, वह मुस्कुराई, वह भी मुस्कुराया। उस समय नाव नदी में स्थित एक छोटे द्वीप के किनारे जा पहुंची। वह द्वीप वृक्ष और पौधों से परिपूर्ण था। रंग-बिरंगे पक्षी वृक्षों पर फुदक रहे थे। दोनों नाव से उतरे और वहां कुछ देर तक रुके। तब तक दोनों भी सच्चे साथी बन गए थे।



वह पाराशर ऋषि थे। व्यास उन व्यास दोनों के पुत्र थे।

मां की सेवा में तत्पर
 वेदव्यास  किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं है वह एक पदवी है। प्रत्येक द्वापर युग में व्यास का अवतार होता है। अगला द्वापर युग प्रारंभ होने तक वह पदवी धारण करता है। वास्तव में यह व्यास कृष्ण द्वैपायन थे। कृष्ण वर्ण के थे और द्वेपायन इसलिए  कि उनका जन्म यमुना के एक द्वीप पर हुआ था। वे वेदव्यास कहलाए, क्योंकि उन्होंने वेदों को चार भागों में विभाजित किया था। उनका आश्रम बद्री में था और इसलिए वे बाद रायण कहलाए। इस प्रकार लोगों ने उन्हें अनेक नामों से जाना पहचाना। हम उन्हें व्यास ही कहेंगे। उनके संबंध में अनेक कथाएं हैं। यह सारी कथाएं उनकी और साधारण महानता सिद्ध करती है। वेद शास्त्र पुराण काव्य इतिहास एवं ज्ञान के सभी क्षेत्रों में वे पारंगत थे। वे परम कोटि के विद्वान थे आखिर वे ऋषि पुत्र ही तो थे।
व्यास में अपनी माता के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। सत्यवती ने वात्सल्य से उनका सिर हिलाया। व्यास हाथ जोड़कर खड़े हो गए और उन्होंने कहा मां यदि कभी तुम मुझसे मिलना चाहो तो मेरा स्मरण भर कर लेना फिर मैं चाहे कहीं क्यों ना रहूं तुरंत उपस्थित हो जाऊंगा।
ऐसा ही करूंगी बेटा उसने कहा फिर व्यास ने मां से विदा ली और तपस्या करने के लिए बद्री रवाना हो गए।
अनेक वर्ष बीत गए राजा शांतनु अपनी राजधानी हस्तिनापुर में राज्य कर रहे थे। एक दिन उनकी सत्यवती से भेंट हुई उन्होंने उससे विवाह कर लिया। चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक उनके दो पुत्र हुए। चित्रांगद की युवावस्था में तथा विचित्रवीर्य की उसके विवाह के कुछ दिनों बाद ही मृत्यु हो गई। उन की दो पत्नियां थी अंबिका और अंबालिका, सत्यवती बहुत दुखी थी। क्योंकि राजवंश समाप्त हो रहा था। वह बहुत चिंतित थी। उसने अपने पुत्र महान व्यास का स्मरण किया। व्यास तुरंत हस्तिनापुर पहुंचे और मां को प्रणाम किया। मां क्या बात है। आशा है सब कुशल मंगल होगा। मुझे क्यों बुलाया मैं क्या सेवा कर सकता हूं।
सत्यवती ने अपनी चिंता का कारण बताया। व्यास ने उसकी दोनों बहुओं को दो पुत्र होने का आशीर्वाद दिया। अंबिका के पुत्र का नाम धृतराष्ट्र और अंबालिका के पुत्र का नाम पांडु था। राजमहल की एक दासी को भी पुत्र हुआ उसका नाम विदुर रखा गया। वह महान धार्मिक था।
कौरव धृतराष्ट्र के पुत्र थे। पांडु के पुत्र पांडव कहलाए। बिना व्यास के ना तो कौरव होते, ना पांडव और नहीं युद्ध अर्थात महाभारत की कथा ही नहीं होती।
पुत्र के साथ मां का प्रयाण

अनेक वर्षों के बाद राजा पांडु की मृत्यु हुई। सत्यवती ने एक बार पुनः व्यास का स्मरण किया। व्यास आए और उन्होंने सब को सांत्वना दी। उन्होंने सबको प्रोत्साहित किया। तब तक सत्यवती बहुत वृद्ध और अशक्त हो गई थी। उसने अनेक आघात सहन किए थे। व्यास ने सहानुभूति पूर्वक कहा, मां तुम मेरे साथ वन में चलो, तो ठीक रहेगा। जीवन का शेष काल शांति, ध्यान और प्रार्थना में व्यतीत करना। मैं तुम्हारे लिए एक अच्छा स्थान खोज दूंगा। तुम्हें वह बहुत पसंद आएगा।
सत्यवती ने मान लिया। उसकी बहूऐं भी उसके साथ जाने के लिए बड़ी उत्सुक थी। लेकिन घर के बड़ों और बच्चों ने उसका विरोध किया। उन्होंने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उन्हें ना जाने की प्रार्थना की, पर भगवान व्यास ने उन्हें सांत्वना दी। भारी जनसमुदाय शहर के बाहरी द्वार तक उन्हें छोड़ने आया। व्यास ने बड़ी कठिनाई से लोगों को वापस भेजा।
व्यास अपनी वृद्धा मां तथा उसकी पुत्रवधूओं के साथ लेकर रवाना हो गए। वे अनेक दिनों तक चलते रहे। उन्होंने एक घने जंगल में प्रवेश किया। वहां वे एक पर्वत के पास रुक गए। आस-पास बड़े-बड़े वृक्ष से पास ही कल कल ध्वनि से नदी बह रही थी। जिसमें कमल के फूल खिले थे। वहां छाया थी। व्यास ने वृक्ष की शाखाएं और पत्ते एकत्रित किए और मां के लिए एक सुंदर झोपड़ी तैयार कर दी। उन्होंने मां को कमल के पत्तों से प्याला बनाना, प्यास लगने पर उससे पानी लेना और पीना भी सिखाया। उन लोगों ने खाने के लिए कंदमूल फल आदि प्राप्त करना भी सीखा। व्यास वहां 4 दिन ठहरे और उन्होंने मां के लिए सुख सुविधाओं की व्यवस्था की।
विदा के समय व्यास ने मां के चरण छुए और जाने की अनुमति मांगी। वे जानते थे वे अब पुनः मां के दर्शन नहीं कर सकेंगे। वे ऋषि थे, वे शांत थे, फिर भी वह इस विदाई के दुख को सहन न कर सके। सत्यवती ने उन्हें उठाया और गले लगा लिया। सत्यवती की आंखें भी भर आई थी। जाओ बेटा जुग जुग जियो, सुखी रहो और अमर हो मां ने आशीर्वाद दिया।
उनके चले जाने पर सत्यवती अंबिका और अंबालिका वन में रहने वाले साधु सन्यासी की तरह रहने लगी। वे जंगल जंगली फल और कंदमूल खाती। उन्होंने अपने जीवन का अंतिम काल प्रार्थना में बिताया।

क्रमशः........

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