कालजयी सावरकर

‘‘ काल स्वयं मुझसे डरा हैमैं काल से नहीं। कालेपानी का कालकूट पीकरकाल के कराल स्तंभों को झकझोर कर मैं बार-बार लौट आया हूँ और आज भी मैं जीवित हूँ। हारी मृत्यु हैमैं नहीं .... .........’’


काल और महामृत्यु को चुनौती देने वाले और ना सिर्फ चुनौतीउस काल को भी बार-बार मात देते हुए वापिस लौटकर पुनः कई गुना और तेजी से मातृभमि की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने वाले ये महापुरुष थे - स्‍वातंत्र्य विनायक दामोदर सावरकर। उनके जीवन में शायद भगवान महाकाल का तेज था। क्योकि आज तक के इतिहास में सावरकर, पहले और अंतिम ऐसे व्यक्ति थे जिन्हे अपने जीवन में दो आजीवन कालापानी (50 वर्ष) की सजा मिली हैजिसकी कल्पना आज भी रूह कपा देती है।
केवल इतना ही नहीं कि सिर्फ सावरकर अपितु सावरकर के पूरे वंश ने इस स्वतंत्रता देवी के श्रीचरणों में अपना सर्वस्व होम कर दिया। उन कष्टों से तो शायद मृत्यु ज्यादा सहज थी पर देश के लिए तिल-तिल कर जलना उस मृत्यु से भी सहस्त्र गुना कठिन है।

इन शब्दों से लग रहा होगा कि ऐसा कैसा था सावरकर का जीवनतो उनके जीवन के कुछ बिंदु आगे प्रस्तुत है -
·       सावरकर ने अपने जीवन के स्वर्णिम (युवावस्था)13 वर्ष अण्डमान की कालकोठरी में कालापानी की नर्करूपी सजा में बिताएं।
·       अण्डमान में कालापानी की सजा केवलबहुत ही ज्यादा खतरनाक व्यक्तियों को होती थीयह जेल उस समय की सबसे भयानक जेल थीजिसमें कैदी को एक कमरे में बंद रखा जाता था जिसमें न हवान कोई कृत्रिम रोशनीकोई खिडकी भी नहीं। कैदी को सुविधा के रूप में केवल एक कम्बल और कमरे में पानी का मटका। दूसरे कैदी से कोई बात नहीं कर सकता था। कैदियो को कठिन से कठिन शारीरिक यातनाए दी जाती थी। नग्न हाथों (बिना किसी साधन) से उनसे पेड से गिरे नारियल छिलवाए जाते थेकैदियों के हाथ खून से सने ही होते थे। कोल्हू में कैदियों को जोता जाता थालक्ष्य में प्रतिदिन 30 बेलन तेल निकालना होता था। खाने से पहले (रक्तरंजित) हाथ नहीं धोने दिया जाता थाखाना बिल्कुल घटिया (सडा-गलाकीडे रेंगते हुए )होता थाजिस कारण कैदियो का स्वास्थ्य खराब ही रहता था और जल्दी ही उनकी मृत्यु हो जाती थी। सावरकर ने इन सब कष्टों को वहां झेला है।
·       एक और बात - केवल सावरकर ही नहींउनके बडे भाई को भी इसी अंडमान जेल की कालकोठरी में कालापनी मिला था। उनने भी वो सारे कष्ट झेलेपर हार नहीं मानी। धन्य है वो माँ जिसने अपने एक नहीं - दो-दो पुत्र इस स्‍वातंत्र्य देवी को समर्पित कर दिए।
·       उनकी सारी सम्पत्ति अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त कर ली गई। 1-2 वर्ष का पुत्रजिसे वो अत्याधिक प्रेम करते थेमृत्यु को प्राप्त हुआ। जब्ती के बाद सावरकर की पत्नी तथा भाभी को सरकार ने उनके ही घर से भीषण वर्षा में बाहर खदेड दिया।
·       अंडमान में एक जेल में रहते हुए भी 7 वर्षों तक दोनों भाईयों ने एक-दूसरे को नहीं देखा।
·       7 वर्ष बाद जब उन्होंने एक दूसरे को देखा होगा तो पहली बार उन्हें इन बंधनों की पीडा का अनुभव हुआ होगा। पहली बार जेल के पेहरों का अनुभव हुआ होगा। पहली बार शायद कालकोठरी को भी लज्जा आई होगी।
विनायक ने 15 वर्ष की उम्र में अपनी कुलदेवी के सामने सशस्त्र क्रांति की प्रतिज्ञा की थीभारत की स्वतंत्रता तक वो इस पर अडिग और एकनिष्ठ रहें। सन् 1905 में हुए स्वदेश आंदोलनों का श्रेय बाल गंगाधर तिलक ने सावरकर और उनके मित्रों को ही दियाइन्ही के प्रयासों से इस आंदोलन की सफलता में कई गुना वृद्धि हुई। वर्ष 1906 में इन्होंने बेरिस्टर की पढ़ाई के लिए लिए लंदन जाना तय किया। कारण एक और था कि अंग्रेजो के देश में जाकर ही उनके विरुद्ध लडना। परिणामस्वरूप लंदन क्रांतिकारियों के लिए ऊर्जास्तंभ बन गया। भारत में वहां से क्रांति-साहित्य भारतीय क्रांतिकारियों का उपलब्ध कराया जाने लगाजिसका भाव और ओजपूर्ण लेखन व अनुवाद कार्य सावरकर स्वयं करते थेलंदन से हथियार भारत में क्रांतिकारियों तक पहुचाया जाने लगा। लंदन में भी क्रांतिकारियों का दल तैयार हो रहा थाजिनको मार्गदर्शित करने का कार्य सावरकर का ही था। इन्ही क्रांतिकारियों में से एक थे शहीद मदन लाल धींगरा - जिन्होंने भारत में लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज करवाने और उनकी मृत्यु का कारण बनने वाले कर्जिन बाइली से लंदन की भूमि पर प्रतिशोध लेकर ब्रिटिशसत्ता की जमीन हिला दी थी। सावरकर की प्रेरणा ही उनके अंतः में थी।
सावरकर के लेखों में कितनी ऊर्जा थी कि जब तक अंग्रेजों को उनके प्रकाशित लेखों का पता चलता और वे उसे नष्ट करतेउन लेखों को कंठस्थ कर लेने वाले युवाओं की संख्या हजार पार हो चुकी होती थी। तिलक स्वयं सावरकर के लेखों से प्रेरणा लेते थे।

कर्जन वायली के वध के बाद  सावरकर को  लंदन में गिरफ्तार कर लिया जाता है। निर्भय सावरकर रूस के निकट मार्सेलिस बंदरगाह के पास समुद्र में ही कूदकर तैरते हुए भाग जाते हैरूस की धरती पर उन्हें वापिस पकड लिया जाता है। इसके बाद ही उन्हें कालापानी सजा सुनाई जाती है।
सावरकर का एक ध्येय था - जहां भी जाऊंगा सुधार करूंगापरिवर्तन लाऊंगा। अंडमान जेल में मुसलमान गुंडो और पठानों का दबदबा था।  डरा-धमकाकरलालच देकर जेलों में उनके द्वारा धर्मांतरण का कार्य भी होता था। कैदियों को जब भोजन दिया जाता या कुछ खाने की वस्तुए दी जाती तो अक्सर वे मुसलमान गुंडे उस खाद्य वस्तु को छूकर कहते कि तुम हिंदू यदि उसको खाओगे तो मुसलमान हो जाओगे। सावरकर ने वहां जाकर इस स्थिति का बदलने का प्रण किया। उन्होंने मतांतरित हुए व्यक्तियों का भाव और स्वाभिमान जागृत करके उनकी घर वापिसी करवाई। भोजन उन गुंडों के छूने पर अब हिंदू भी छूकर ‘‘ऊँ नमः शिवाय‘‘ कहने लगेशिव सारी अपवित्रता नष्ट करते हैपर अब यदि तुम खाओगे तो हिंदू हो जाओगे - ऐसा कहा जाने लगा। बाद में उस जेल का स्वरूप सावरकर के कारण बदल गया।
अंग्रेजों की नीति फूट डालों और शासन करो की रही हैइसी कारण वे क्षेत्रवादजातिवादमत-पंतवाद इत्यादि का जहर भारतीय जनमानस का देते रहे।
भारत को स्वतंत्रता केवल सामूहिक शक्ति द्वारा प्रतिकार से ही प्राप्त हो सकती है। इसके लिए पहले अपने समाज के भेदों को मिटाना होगा। सावरकर की दृष्टि में यह बात थी - उस समय महाराष्ट्र के रत्नागिरि प्रांत के विद्यालयों में अछूत बालकों को अलग बिठाया जाता था। विट्ठल मंदिर में जातिभेद के कारण सदियों से कथित अश्‍पृश्‍यों का प्रवेश प्रतिबंधित था। सावरकर ने अपनी पूरी शक्ति लगाकार इस स्थिति को बदल दिया। उन्हें बहुत विरोध सहना पडाउनके प्राण तक संकट में आ गए। जब सावरकर ने बुद्धिजीवियों से उक्त विषय पर शास्त्रार्थ किया तो उनके सामने कोई न टिक सका। उन्होंने कहा कि ‘’साँप को पूजते होकुत्ते को खिलाते होरोजाना चूँहे का खून चूसने वाली बिल्ली को दूध पिलाते हो तो हे मित्रों - तुम्हे अपने ही भाई-बंधुजो तुम्हारी तरह राम और कृष्ण की पूजा करते है - उनको छूने में किस बात की शर्म आती है ’’ 
वह क्षण अत्याधिक मार्मिक थाजब सदियों के बाद मंदिरों में सभी का प्रवेश हुआ।
सावरकर और उनके जैसे अनगिनत क्रांतिकारियों के पौरूषत्व का ही परिणाम है कि 15 अगस्त, 1947 को भारत को आजादी प्राप्त हुई। सावरकर आजादी तो चाहते थे परंतु ऐसी खंडित आजादी नहीं। भारत माता के दो टुकडे होने का निर्णय सावरकर और उनके जैसे अन्य क्रांतिकारियों को असीम कष्ट देने वाला था। यह निर्णय शायद उस महामृत्यु से भी अधिक पीडादायक था। अभी यह पीडा उठी ही थी कि भारत माँ का एक दूसरा पुत्र काल का कराल बन गया। वो थे पूज्य महात्मा गाँधी।
पर उसके बाद वो हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। चूंकि सावरकर की छवि एक हिंदुवादी क्रांतिकारी की थी और देष भर में हिंदुत्ववादी शक्तियों का गाँधी हत्या के पर्दे के पीछे दमन का कार्य प्रारम्भ हुआ। राजनीतिक तथा कुछ अन्य स्वार्थों के कारण समाज में व्याप्त आक्रोश को घी डालने का कार्य किया गया। कारण इतना था कि गाँधी जी की हत्या करने वाला भी अपने को कट्टर हिंदू कहता था। उस व्यक्ति को तुरंत पकड लिया गया और फांसी भी दी गई।
परंतु ऐसे समय का उपयोग भी स्वार्थपूर्ति के लिए हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी संगठनों पर प्रतिंबध लगा दिया गया। उनके कार्यकर्ताओं पर असहनीय अत्याचार हुए। बाद में संघ के सत्याग्रह आंदोलन के बाद जिसकी माँग थी कि ‘‘संघ से प्रतिबंध हटाओंया आरोप सिद्ध करों ’’ - न्यायालय ने तथ्‍यपरक निर्णय देते हुए संघ से सभी प्रतिबंध हटा लिए। ये सब सहने वाला संघ अकेला नहीं था। भला ऐसे समय सावरकर को कैसे छोडा जा सकता थाउनके घर पर उपद्रवियों ने हमला बोल दिया। यदि सही समय पर पुलिस नहीं आती तो उनके प्राण पर भी बडा संकट था। 4 फरवरी सन् 1948 को उन्हें बंदी बना लिया गया। उन पर बहुत से आरोप लगाए गए। इस स्वतंत्र भारत में उन्हें अनेक शारीरिक और मानसिक कष्ट तथा यातनाएं दी गई। इन सब को उन्होंने चुपचाप सह लिया। सावरकर पर लंबे समय तक मुकदमा चला। सारे पहलुओं पर अध्ययन के बाद अंत में न्यायाधीष ने उन्हें निरपराध घोषित किया। सावरकर 66 वर्ष पूर्ण कर चुके थे। परतंत्र और स्वतंत्र - दोनो कालों में उन्होंने कष्ट झेले। वे कहते थे - ‘‘सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ’’। 26 फरवरी सन् 1966 को 83 वर्ष की अवस्था में इस कालजयी पुरूष ने मृत्यु का वरण कियाअन्यथा मृत्यु तो इनको छू भी नहीं सकती थी।

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