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भारतीय संविधान में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों के लिए कोई स्थान नहीं

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भारतीय संविधान में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों के लिए कोई स्थान नहीं ये शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पिछले दरवाजे से शामिल किए गए थे , जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश पर भीतरी आपातकाल थोप दिया था। इस प्रकार, भारतीय संविधान की मूल आत्मा में बदलाव सबसे अलोकतांत्रिक तरीके से 1976 में किया गया, जब मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया और अधिकांश विपक्षी सांसदों को कड़े कानूनों के तहत जेल में डाल दिया गया। इससे पहले, संविधान में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे उधार लिए गए शब्दों को शामिल करने के प्रयास संविधान सभा में विफल हो चुके थे। संविधान सभा की बहसों में इन शब्दों पर विस्तृत चर्चा के बाद इन्हें अस्वीकार कर दिया गया था। संविधान सभा के सदस्य प्रोफेसर के. टी. शाह ने इन दो शब्दों को संविधान में शामिल करने के लिए तीन बार संशोधन पेश किया। लेकिन तीनों बार उनके प्रस्तावों को नकार दिया गया। शाह ने सबसे पहले नवंबर 1948 में अनुच्छेद 1 के खंड (1) में “भारत एक ‘धर्मनिरपेक्ष, संघीय समाजवादी’ राज्य होगा” जोड़ने का सुझाव द...

“संविधान की हत्या के पचास वर्ष-5 अंधेरा छटा, सूरज खिला…”

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 अंधेरा छटा, सूरज खिला… साल 1975 की बात है। देश पर स्याह बादल छाए हुए थे। जेलों में बंद लाखों लोग, टूटती उम्मीदें, भय से कांपती आवाज़ें, और हर गली-मोहल्ले में पसरा हुआ मौन। लोकतंत्र का भारत, एक तानाशाह सत्ता की छाया में एक बड़े जेलखाने में तब्दील हो गया था। लेकिन इस अंधेरे में भी कुछ चिंगारियाँ थीं, जो बुझने से इनकार कर रही थीं। वे फुसफुसा रही थीं – “ टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते ”। इन्हीं चिंगारियों में एक थे – विनय, संघ का एक युवा स्वयंसेवक, जो भूमिगत होकर ‘लोक संघर्ष समिति’ के संदेशों को देशभर में फैला रहा था। हर रात वह अपने कंधे पर साइक्लोस्टाइल किए हुए पत्रक ढोता, दीवारों पर नारे लिखता – “तानाशाही मुर्दाबाद!”, “आपातकाल हटाओ!” भाग 1 यहां पढ़ें विनय अकेला नहीं था। उसके जैसे हजारों लोग देश भर में एक अदृश्य नेटवर्क के रूप में काम कर रहे थे। बंद शाखाएं, बंद अखबारें, बंद न्यायालय – पर विचार नहीं रुके, प्रतिरोध नहीं थमा। 14 नवंबर 1975 को, जब राष्ट्र बच्चों के दिन की तैयारी में था, विनय और उसके साथियों ने सत्याग्रह की तैयारी कर ली। “26 जनवरी तक, हर दिन, हर शहर में...

संविधान की हत्या के पचास वर्ष भाग-4 "टूट सकते हैं मगर हम…"

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  संविधान की हत्या के पचास वर्ष भाग-4  "टूट सकते हैं मगर हम…" प्रस्तावना: 1975 की बरसात बहुत कुछ बहाकर ले गई थी — लोकतंत्र, नैतिकता, और बोलने की आज़ादी। अगस्त आते-आते देश की फिज़ा कुछ और ही कहानियाँ बुनने लगी थी। एक नया राज बना था — जिसमें सत्ता केवल एक परिवार की थी, और भय उसका सबसे बड़ा शस्त्र। दिल्ली की वो सुबह राजधानी की सड़कों पर चहल-पहल थी, लेकिन लोगों के चेहरों पर छाया डर कुछ और ही कह रहा था। संसद भवन के भीतर संविधान की धज्जियाँ उड़ रही थीं, और बाहर बुलडोज़र तैयार खड़े थे। देश का नक्शा बदलने चला था एक युवक — जिसके हाथ में सत्ता नहीं, पर सत्ता से भी ज़्यादा कुछ था — डर का साम्राज्य । वो युवक कोई मंत्री नहीं था। सांसद भी नहीं। पर प्रधानमंत्री का बेटा था — संजय गांधी। भाग 1 यहां पढ़ें कोर्ट की लड़ाई और बुलडोज़र की धमक 7 अप्रैल 1976 का दिन था। दिल्ली हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के चुनाव हुए थे। सबको लग रहा था कि संजय गांधी के समर्थक डी. डी. चावला की जीत पक्की है। मगर नतीजे ने तूफान खड़ा कर दिया। प्राणनाथ लेखी जीत गए — वही, जो अभी-अभी तिहाड़ जेल से छूटे थे, सं...