भारत में अब कोई कानून नही बनता जिसमे "जम्मू कश्मीर को छोड़कर" लिखा हो।
कभी आतंकवाद के गढ़ के रूप में जाने जाने वाले अनंतनाग, पुलवामा, त्राल और शोपियां जैसे क्षेत्रों में आज हालात बदल चुके हैं। इन क्षेत्रों में शांतिपूर्ण मतदान हो रहा है, जो इस बात का प्रमाण है कि कश्मीर घाटी में स्थितियाँ सामान्य हो रही हैं और वहां के लोग अब लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उत्साहपूर्वक भाग ले रहे हैं। यह वही क्षेत्र हैं जो कभी आतंकवाद और अलगाववाद के कारण चर्चा में रहते थे, लेकिन अब वहाँ के लोग भी विकास और शांति की चाहत में हैं।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी के 'एक देश, एक विधान, एक प्रधान' के संकल्प को पूरा करने की दिशा में भाजपा ने धारा 370 और 35A को हटाकर एक ऐतिहासिक कदम उठाया। यह धारा जम्मू-कश्मीर के लिए विशेषाधिकार प्रदान करती थी, जिसके चलते वहां का अलगाववादी और उग्रवादी तत्व मजबूत होता गया था। इन धाराओं के हटने के बाद से जम्मू-कश्मीर में न केवल शांति और स्थिरता आई है, बल्कि वहां के लोग भी मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं।
इससे पहले, जब भी कोई राष्ट्रीय कानून बनता था या प्रस्ताव पारित होता था, तो उस पर लिखा होता था, "जम्मू-कश्मीर को छोड़कर।" यह एक असमानता का प्रतीक था, जिसे मोदी सरकार ने समाप्त कर दिया। अब जम्मू-कश्मीर के लोग भी उसी तरह से भारतीय संविधान और कानूनों के अधीन हैं, जैसे देश के अन्य नागरिक। जिस कश्मीर में एक समय आम भारतीय का प्रवेश असंभव था और जहां कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी सर्वोच्च सुरक्षा के बावजूद जाने से डरता था, वहां आज स्थानीय लोग और पर्यटक बिना किसी भय के स्वतंत्र रूप से घूम सकते हैं।
कांग्रेस ने लंबे समय तक धारा 370 को इस क्षेत्र की नियति के रूप में प्रस्तुत किया। उनके इस दावे के पीछे तुष्टीकरण की राजनीति और वोट बैंक की रणनीति थी। आज कांग्रेस पार्टी मुख्यधारा से बाहर हो चुकी है, और कश्मीर की राजनीति में उसका प्रभाव सीमित हो गया है। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भले ही नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ गठबंधन के चलते कुछ सीटें कांग्रेस को मिल जाएं, लेकिन उन क्षेत्रों में जहां राष्ट्रवादी भावनाएं प्रबल हैं, वहां कांग्रेस का खाता भी नहीं खुलने वाला।
धारा 370 के हटने के बाद कांग्रेस एक दुविधा में फंसी हुई है। कश्मीर में अलगाववादियों, उग्रवादियों और आतंकवादियों के समर्थन से कांग्रेस पुनः धारा 370 को लागू करने की बात करती है, जबकि देश के अन्य हिस्सों में इस मुद्दे पर वह चुप रहती है। यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि कांग्रेस की राजनीति अवसरवादी है और वह तुष्टीकरण की नीति पर आधारित है। पंथनिरपेक्षता की आड़ में कांग्रेस ने वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा दिया और देश को गहरे सामाजिक और सांस्कृतिक घाव दिए हैं, जिनकी पीड़ा आज भी देश झेल रहा है।
देश के अन्य हिस्सों में भी कांग्रेस द्वारा पोषित कट्टरवाद की जड़ें गहरी हो चुकी हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में अलगाववादी आंदोलन, केरल में सांप्रदायिक संघर्ष, और तमिलनाडु में क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर कट्टरवाद का उदय कांग्रेस की तुष्टीकरण और विभाजनकारी नीतियों का परिणाम है। कांग्रेस की यह अवसरवादी और तुष्टीकरण पर आधारित राजनीति भारत के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रही है और देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन रही है।
हर भारतीय को कांग्रेस की इस अवसरवादी राजनीति का विरोध करना चाहिए, क्योंकि इसके नकारात्मक प्रभाव देश की अखंडता को एक बार फिर चुनौती दे सकते हैं। जिस तरह से कांग्रेस ने अतीत में विभाजनकारी नीतियों का समर्थन किया और देश को विभाजन की त्रासदी झेलनी पड़ी, वैसा भविष्य में न हो इसके लिए जनता को जागरूक होना होगा। कांग्रेस की नीतियों से सतर्क रहना और उन्हें खारिज करना आवश्यक है ताकि भारत की एकता और अखंडता पर कोई आंच न आए।
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