विजय दिवस विशेष


16 दिसंबर को हम सभी विजय दिवस के रूप में मनाते है। 16 दिसंबर 1971 को भारत की पाकिस्तान पर विजय की स्मृति के रूप में इस दिवस को हम पिछले 49 वर्षों से मनाते आ रहे हैं क्या है।
इस दिन का महत्व क्या है?
इस युद्ध में कैसे विजय मिली?
युद्ध के दौरान क्या-क्या घटनाएं हुई?
इस युद्ध के मुख्य नायक कौन-कौन थे? इस विजय का इतना अधिक महत्व क्यों हैं?
क्या है 93000 पाक सैनिकों के आत्मसमर्पण का सच?
वर्तमान पीढ़ी इन सब से अनभिज्ञ है। आइए इस आलेख के माध्यम से इसके बारे में सब कुछ जानने का प्रयास करते हैं।

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ऐतिहासिक पृष्ठभूमि- भारत से अंग्रेजों का जाना सुनिश्चित होने के काफी पहले से उन्होंने अपनी कूटनीति के चलते भारत के टुकड़े करने की योजना पर कार्य प्रारंभ कर दिया था। वैसे तो अंग्रेजों ने 1857 से ही भारत विखंडन के कार्य पर काम प्रारंभ कर दिया। किंतु इस दिशा में विश्व युद्ध के बाद उन्होंने तेजी से काम किया। भारत का हिंदू मुस्लिम आबादी के अनुसार विभाजन हुआ। जिसका परिणाम पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान का उदय के रूप में हुआ। पाकिस्तान के उदय के बाद से ही हमारा देश भारत सतत युद्ध रत है। पाकिस्तान ने बार-बार भारत पर युद्ध थोपा है, किंतु हर बार उसमें मुंह की खाई है।
भारत के इतिहास में 16 दिसंबर एक महत्वपूर्ण दिन कहा जाता है। यह विजय दिवस, देश पर बलिदान होने वाले जवानों की याद में प्रतिवर्ष 16 दिसंबर को मनाया जाता है। वर्ष 1971 में भारत और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर अत्याचार के खिलाफ युद्ध हुआ था। जिसके बाद बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) का जन्म हुआ। भारत और पाकिस्तान के बीच हुए इस युद्ध में 93000 पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के आगे अपने घुटने टेक दिए थे। देश की आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच 4 बार युद्ध हुए। लेकिन सबसे अधिक 1971 और 1999 में हुए कारगिल युद्ध को याद किया जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच 1947, 1965, 1971 और 1999 में युद्ध हुए है।

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युद्ध के कारण

हलाँकि युद्ध की पृष्‍ठभूमि साल 1971 के प्रारम्भ से ही बनने लगी थी। पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया ख़ां ने 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जन भावनाओं को सैनिक ताकत से कुचलने का आदेश दे दिया। पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया खां (yahya khan) ने पूर्वी पाकिस्तान (East Pakistan) में कठोर रुख अपनाना शुरू किया। ऐसा इस लिए क्योंकि पश्चिमी पाकिस्तान वहां रहने वाले ज्यादातर बंगाली नेतृत्व को दबाना चाहता था। वह यह भूल गया था कि पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच में विराट हृदय वाला देश भारत बसता है। इसके बाद शेख़ मुजीब को गिरफ़्तार कर लिया गया। तब वहां से कई शरणार्थी लगातार भारत आने लगे। वहां हिंदुओ पर अत्याचार की पराकाष्ठा हो रही थी। लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा जा चुका था, हजारों महिलाओं का बलात्कार सेना कर चुकी थी। यह सब समाचार भारत के नेतृत्व को मिल रहे थे।

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जब भारत में पाकिस्तानी सेना के दुर्व्यवहार की ख़बरें आईं, तब भारत पर यह दबाव पड़ने लगा कि वह वहां पर सेना के माध्यम से हस्तक्षेप करे। तत्कालीन नेतृत्व चाहता था कि अप्रैल में आक्रमण किया जाए। जब इस बारे में थलसेनाध्‍यक्ष जनरल मानेकशॉ की राय ली गई तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया। क्योंकि उस समय भारत के पास सिर्फ़ एक पर्वतीय डिवीजन था। इस डिवीजन के पास पुल बनाने की क्षमता नहीं थी और फिर मानसून भी दस्तक देने ही वाला था। ऐसे समय में पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करना मुसीबत मोल लेने जैसा था। मानेकशॉ ने सियासी दबाव में झुके बिना स्पष्ट कर दिया कि वे पूरी तैयारी के साथ ही युद्ध के मैदान में उतरना चाहते हैं।




उधर बांग्लादेश में आजादी की लहर शुरू हो गई थी- 

1970 के आम चुनाव से जिसमें पूर्व पाकिस्तानी अवामी लीग ने कुल 169 सीटों में से 167 सीटें जीतकर मजलिस-ए-शूरा (पाकिस्तानी संसद के निचले सदन) की 313 सीटों पर बहुमत हासिल कर लिया। अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान ने पाकिस्तान का राष्ट्रपति बनने और सरकार बनाने का दावा किया।



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इसके तुरंत बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का जुल्फिकार अली भुट्टो ने मुजीबुर रहमान का दावा खारिज करते हुए राष्ट्रपति  शासन लागू करने की सिफारिश की। पश्चिम पाकिस्तानियों द्वारा पूर्वी पाकिस्तान में अपने प्रभुत्व को कायम रखने के लिए और वहां फैल रहे असंतोष को दबाने के लिए कठोर सैन्य कार्यवाही शुरू कर दी। 25 मार्च 1971 को अवामी लीग को भंग कर शेख मुजेबुर रहमान को गिरफ्तार कर पश्चिमी पाकिस्तान ले जाया गया।

पाकिस्तानी सेना के एक मेजर जियाउर्ररहमान ने मुजीबुर रहमान की और से बांग्लादेश की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। उन्होंने मुक्ति बाहिनी का गठन किया और पश्चिमी पाकिस्तान की सेना का मुकाबला किया। सैन्य कार्यवाही में बेतहाशा कत्लेआम हुआ। पाक सेना द्वारा अल्पसंख्यक हिन्दुओं और बांग्लाभाषियों पर किए जा रहे अत्याचारों के चलते लाखों शरणार्थियों ने भारत की ओर प्रस्थान किया।




हालांकि उस समय पूर्वी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को सहयोग करते हुए भारत की सेना ने मुक्तिसेना को सहयोग कर रही थी। भारतीय सेना की सहायता से मुक्ति सेना लड़ने को तैयार हो रही थी।

युद्ध का प्रारम्भ-

3 दिसंबर, 1971 की शाम के समय पाकिस्तानी वायुसेना के विमानों ने भारतीय वायुसीमा को पार करके पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर, आगरा आदि सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराना शुरू कर दिया। उसी वक्‍त दिल्ली में मंत्रिमंडल की आपात बैठक की गई और प्रतिउत्तर देने का निर्णय हुआ।




युद्ध शुरू होने के बाद पूर्व में तेज़ी से आगे बढ़ते हुए भारतीय सेना ने जेसोर और खुलना पर कब्ज़ा कर लिया। भारतीय सेना की रणनीति थी कि अहम ठिकानों को छोड़ते हुए पहले आगे बढ़ा जाए। युद्ध में मानेकशॉ खुलना और चटगांव पर ही कब्ज़ा करने पर ज़ोर देते रहे। ढाका पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य भारतीय सेना के सामने नहीं रखा गया।

गुप्त संदेश जिसने बदल दी युद्ध की सूरत

14 दिसंबर को भारतीय सेना ने एक गुप्त संदेश को पकड़ा कि दोपहर ग्यारह बजे ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन बड़े अधिकारी भाग लेने वाले हैं। भारतीय सेना ने तय किया कि इसी समय उस भवन पर बम गिराए जाएं। बैठक के दौरान ही मिग 21 विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी। गवर्नर मलिक ने लगभग कांपते हाथों से अपना इस्तीफ़ा लिखा।

इस तरह हुआ आत्मसमर्पण

16 दिसंबर की सुबह जनरल जैकब को मानेकशॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुंचें। जैकब की हालत बिगड़ रही थी। नियाज़ी के पास ढाका में 26,400 सैनिक थे, जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3,000 सैनिक और वे भी ढाका से 30 किलोमीटर दूर।

भारतीय सेना ने युद्ध पर पूरी तरह से अपनी पकड़ बना ली। अरोड़ा अपने दलबल समेत एक दो घंटे में ढाका लैंड करने वाले थे और युद्ध विराम भी जल्द ख़त्म होने वाला था। जैकब के हाथ में कुछ भी नहीं था. जैकब जब नियाज़ी के कमरे में घुसे तो वहां सन्नाटा छाया हुआ था। आत्म-समर्पण का दस्तावेज़ मेज़ पर रखा हुआ था।




शाम के साढ़े चार बजे जनरल अरोड़ा हेलिकॉप्टर से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे। अरोडा़ और नियाज़ी एक मेज़ के सामने बैठे और दोनों ने आत्म-समर्पण के दस्तवेज़ पर हस्ताक्षर किए। नियाज़ी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिया। नियाज़ी की आंखों में एक बार फिर आंसू आ गए।

अंधेरा घिरने के बाद स्‍थानीय लोग नियाज़ी की हत्‍या पर उतारू दिख रहे थे। भारतीय सेना के वरिष्ठ अफ़सरों ने नियाज़ी के चारों तरफ़ एक सुरक्षित घेरा बना दिया। बाद में नियाजी को बाहर निकाला गया।

इधर भारत में लोकसभा में शोर-शराबे के बीच घोषणा की गई कि युद्ध में भारत को विजय मिली है। इसके बाद पूरा सदन उत्सव के वातावरण में डूब गया। इस ऐतिहासिक जीत को खुशी आज भी हर देशवासी के मन को उमंग से भर देती है।

युद्ध परिणाम:-


दुनियाँ के नक्शे पर एक नए देश बंग्लादेश का उदय हुआ। भारत-पाकिस्तान के हुए इस युद्ध में दोनों तरफ से करीब 4000 हजार सैनिक इस युद्ध में शहीद हुए और 9851 जवान घायल हुए। ऐसे कहा जाता है कि युद्ध के दौरान बांग्लादेश के 3 लाख लोग मारे गए थे।
इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना पराजित हुई और 16 दिसंबर 1971 को ढाका में 93000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस युद्ध के 12 दिनों में अनेक भारतीय जवान शहीद हुए और हजारों घायल हो गए।




पाक सेना का नेतृत्व कर रहे ले. जनरल एके नियाजी ने अपने 93 हजार सैनिकों के साथ भारतीय सेना के कमांडर ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण कर हार स्वीकार की थी।

"दुनिया के इतिहास में इतने बड़े केवल दो ही आत्मसमर्पण हुए हैं, पहला बंग्लादेश में और दूसरा लेनिनग्राद में। एक समय था जब पाकिस्तान पर मिली इस जीत के दिन यानी 16 दिसंबर को देश भर में प्रभातफेरियां निकाली जाती थीं और जश्न का माहौल रहता था। किन्तु आजकल ऐसा कुछ भी नहीं होता है। "विजय दिवस" को लेकर कहीं कोई उत्साह नहीं दिखता है। इस उत्साह के भाव को बनाये रखना हमारी पीढ़ी का दायित्व है।

 इस युद्ध से दुनिया के नक्शे पर क्या प्रभाव पड़ा-

इस आत्म समर्पण के बाद पूर्वी पाकिस्तान पाकिस्तान का क्षेत्र नहीं रहा और एक स्वतंत्र देश बांग्लादेश (Bangladesh) बन गया। 2 जुलाई 1972 को भारत-पाकिस्तान ने शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए। जिसके बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों की खातिर बांग्लादेश को एक स्वतंत्र देश मान लिया। जिसके बाद दुनिया के नक्शे पर एक और देश आ गया।

युद्ध के दौरान अनेक वीर सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी। इस दौरान अनेक ऑपरेशन चलाये गए। सेना की तीनों कमान सक्रिय थी। उस समय चलाये गए ऑपरेशन्स के बारे में आगामी दिनों में जानकारी करेंगे। किंतु-

इस युद्ध के नायकों को स्मरण करना भी समीचीन होगा, आइए जानते है उनमें से कुछ भारतीय सैनिको के बारे में जिन्होंने इस महासंग्राम में अपूर्व शौर्य और साहस का परिचय दिया था :




1. सेनाध्यक्ष सैम मानेकशॉ: सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ उस समय भारतीय सेना के अध्यक्ष थे जिनके नेतृत्व में भारत ने सन् 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ा और इसमें विजय प्राप्त की और बांग्लादेश का जन्म हुआ।

2. कमांडर ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा जगजीत सिंह अरोड़ा भारतीय सेना के कमांडर थे। वो जगजीत सिंह अरोड़ा ही थे जिनके साहस और युद्ध कौशल ने पाकिस्तान की सेना को समर्पण के लिए बाध्य किया। ढाका में उस समय लगभग 30000 पाकिस्तानी सैनिक मौजूद थे और लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह के पास ढाका से बाहर करीब 3000 सैनिक ही थे। दूसरी सैनिक टुकड़ियों का अभी पहुंचना बाकी था। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह ढाका में पाकिस्तान के सेनानायक लेफ्टिनेंट जनरल नियाज़ी से मिलने पहुँचे और उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालकर उन्होंने उसे आत्मसमर्पण के लिए बाध्य कर दिया। इस तरह पूरी पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।

3. मेजर होशियार सिंह मेजर होशियार सिंह को भारत पाकिस्तान युद्ध में अपना पराक्रम दिखाने के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। मेजर होशियार सिंह ने 3 ग्रेनेडियर्स की अगुवाई करते हुए अपना अद्भुत युद्ध कौशल और पराक्रम दिखाया। उनके आगे दुश्मन की एक न चली और उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा। उन्होंने जम्मू कश्मीर की दूसरी ओर शकरगड़ के पसारी क्षेत्र में जरवाल का मोर्चा फ़तह किया था।

4. लांस नायक अलबर्ट एक्का 1971 के इस ऐतिहासिक भारत पाकिस्तान युद्ध में अलबर्ट एक्का ने अपनी वीरता, शौर्य और सैनिक कौशल का प्रदर्शन करते हुए अपने इकाई के सैनिकों की रक्षा की। इस अभियान के समय वे बहुत ज्यादा घायल हो गये और 3 दिसम्बर 1971 को इस दुनिया को विदा कह गए। भारत सरकार ने इनके अदम्य साहस और बलिदान को देखते हुए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया।




5. फ़्लाइंग ऑफ़िसर निर्मलजीत सिंह सेखों निर्मलजीत सिंह सेखों 1971 मे पाकिस्तान के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों श्रीनगर में पाकिस्तान के खिलाफ एयरफोर्स बैस में तैनात थे, जहां इन्होंने अपना साहस और पराक्रम दिखाया। भारत की विजय ऐसे ही वीर सपूतों की वजह से संभव हो पाई।

6. लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपालको अपने युद्ध कौशल और पराक्रम के बल पर दुश्मन के छक्के छुड़ाने के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में अनेक भारतीय वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी। सबसे कम उम्र में परमवीर चक्र पाने वाले लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल भी उन्हीं में से एक थे।

7. चेवांग रिनचैन चेवांग रिनचैन की वीरता और शौर्य को देखते हुए इन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। 1971 के भारत-पाक युद्द में लद्दाख में तैनात चेवांग रिनचैन ने अपनी वीरता और साहस का पराक्रम दिखाते हुए पाकिस्तान के चालुंका कॉम्पलैक्स को अपने कब्जे में लिया था।

8. महेन्द्र नाथ मुल्ला 1971 भारत-पाक युद्द के समय महेन्द्र नाथ मुल्ला भारतीय नेवी में तैनात थे। इन्होंने अपने साहस का परिचय देते हुए कई दुशमन लडाकू जहाज और सबमरीन को नष्ट कर दिया था। महेन्द्र नाथ मुल्ला को मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

16 दिसम्बर 1971 को याद करके पाकिस्तान आज भी सिहर उठता है। इस लिए पाकिस्तान सदा ही भारत मे प्रभावहीन, ढुलमुल नेतृत्व की कामना करता है। भारत में जब जब नेतृत्व मजबूत, सक्षम, निर्णय लेने की त्वरा वाला होता है तब तब पाकिस्तान भयभीत होता है। विशेष रूप से जब भारत की तरफ से बलूच भाइयों पर हो रहे अत्याचारों की चर्चा जब भारत का नेतृत्व करता है, तब पाक सरकार के रोंगटे खड़े होते है। वे ऊपर से नीचे तक कांप जाते है। पाक द्वारा अनाधिकृत कब्जाए कश्मीर को लेकर डरावने स्वप्न दिखने लगते है। सिंध को लेख शक की सुगबुगाहट होने लगती है। भारतीय सेना और वर्तमान नेतृत्व पर हमें विश्वास होना चाहिए और इतिहास के गौरवपूर्ण घटनाओं को याद कर आगामी पीढ़ी का निर्माण करना चाहिए।

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