राष्ट्रीय शिक्षा नीति और हमारी ज्ञान विरासत- 2

वासुदेव प्रजापति

भारतीय शिक्षा

भारतीय समाज की सुव्यवस्था का श्रेय सनातन शिक्षा व्यवस्था को है। डा. ए एस अल्तेकर के अनुसार उपनिषत्काल में भारत में साक्षरता ८० प्रतिशत थी। तक्षशिला, नालन्दा, वल्लभी, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी, मिथिला, नदिया और काशी जैसे विश्वविद्यालयों की ख्याति सम्पूर्ण विश्व में फैली हुई थी। भारतीय शिक्षा का उद्देश्य मानव व्यक्तित्व का उच्चतम विकास था। भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में भारतीय विद्या-केन्द्रों ने ऐसा ज्ञान आविष्कृत किया, जिसके ऋणी आज विश्व के दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दोनों ही हैं।

भारतीय संस्कृति

अपनी श्रेष्ठ संस्कृति एवं शिक्षा के बल पर ही भारत विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति की विजय पताका फहराई। प्रज्ञाचक्षु पू.गुलाबराव महाराज ने अपने अन्वेषण के आधार पर स्पष्ट कहा कि “प्राचीन काल में पूरे विश्व में एक ही विश्व व्यापिनी संस्कृति विद्यमान थी – वह थी वैदिक संस्कृति।” विश्व के अनेक देशों में यथा – अमेरिका, मेक्सिको, पेरू, यूरोप, चीन, जापान, इण्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा आदि में आज भी हिन्दू संस्कृति के अवशेष दिखाई देते हैं। दुनिया के सभी इतिहासकार यह स्वीकार करते हैं कि ” भारत ने सब दृष्टि से समर्थ व समृद्ध होने पर भी, अपनी सीमाओं को लाँघकर अन्य किसी भी देश पर राजनैतिक आधिपत्य स्थापित नहीं किया। अपितु सांस्कृतिक दृष्टि से सबको श्रेष्ठ बनाने हेतु “कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ” का मार्ग अपनाया।

संस्कृत भाषा

संस्कृत भारतीय साहित्य की भाषा है। संस्कृत भाषा सबसे प्राचीन, समृद्ध एवं पूर्ण वैज्ञानिक है। विश्व की कोई भी भाषा इसकी बराबरी नहीं कर सकती। उल्लेखनीय है कि आदिकाल से ही इस भाषा में चेतन, अवचेतन और अचेतन मन के लिए शब्द प्रचलित थे। इस भाषा में ऐसे अनेक शब्द हैं, जिनके पर्यायवाची शब्द आधुनिक भाषाओं में ढूँढ़े नहीं मिलते। सभी वैज्ञानिक एकमत से स्वीकार करते हैं कि कम्प्यूटर के लिए संस्कृत ही सर्वश्रेष्ठ भाषा है।

विज्ञान में अग्रणी

भारत ने अनेक शताब्दियों तक न केवल विश्व का सांस्कृतिक नेतृत्व ही नहीं किया अपितु विज्ञान के भी विभिन्न क्षेत्रों में अग्रणी रहा। प्राचीन काल में भारत को विज्ञान की जननी माना जाता था।

भौतिक विज्ञान :-

भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय विद्वानों की ख्याति सुदूर देशों तक फैली हुई थी। भारत के प्रथम परमाणु विज्ञानी महर्षि कणाद थे। ऋषि अगस्त्य ने इलेक्ट्रिक सेल का निर्माण किया था। प्राचीन ऋषियों ने काल और अवकाश दोनों को गणनाबद्ध किया और अन्तरिक्ष को नापा था। ऋग्वेद में प्रकाश की गति से सम्बन्धित एक श्लोक है – “योजनानां सहस्रे द्वे द्वेशते द्वे च योजने” अर्थात् प्रकाश अर्द्ध निमिष में २,२०२ योजन चलता है। इस सूत्र के आधार पर प्रकाश की गति २,११,३९२ मील प्रति सैकण्ड हुई, जो आधुनिक विज्ञान के अनुसार १,८६,३०० मील प्रति सैकण्ड के लगभग बराबर है।

सृष्टि रचना ( कोसमोलॉजी ) :-

आज जिसे कौसमोलॉजी कहते हैं, उसे हमारे रृषियों ने सृष्टि रचना-विज्ञान नाम दिया है। इसका विशद वर्णन आचार्य कपिल मुनि के सांख्य दर्शन में मिलता है। सांख्य दर्शन में पृथ्वी की आयु २०० करोड़ वर्ष बताई है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार कुछ समय पूर्व तक पृथ्वी की आयु २०० करोड़ वर्ष ही मानी जाती रही है।

भारतीय गणित :-

आधुनिक अंकगणित व बीजगणित के अंकुर भारतभूमि में ही प्रस्फुटित हुए। यहीं के गणितज्ञ ने सर्वप्रथम शून्य (०) संख्या की कल्पना की। गणित के इतिहास में शून्य की खोज से बढ़कर दूसरी कोई बड़ी उपलब्धि हो नहीं सकती। इसी प्रकार दशमलव के आविष्कार से भी अंकगणित की शक्ति में अद्भुत वृद्धि हुई। १ से ९ तक के अंकों का आविष्कार भी भारत में हुआ। भारत से ये अंक अरब में गये,इसीलिए अरबी लोग इन अंकों को ” हिन्दसा ” कहते हैं। पुरी के शंकराचार्य प. पू. भारती कष्णतीर्थ ने वैदिक गणित के सम्बन्ध में बताया है कि इसमें कम्प्यूटर से भी कम समय में गणितीय गणनाएँ की जा सकती है। यह है विश्व को भारत की देन।

बीजगणित:

अंक गणित के साथ-साथ प्रसिद्ध खगोलविद् आर्यभट्ट ने भारत में बीजगणित का विस्तार किया। उनके द्वारा परिधि और व्यास का मान (पाई) को आसन्न मानते हुए, इसे ३.१४१६ स्थापित किया। आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के बीजगणित के क्षेत्र में योगदान को देखकर आज के बड़े-बड़े गणितज्ञ भी उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं। हमारे बोधायन सूत्र में वह थ्योरम है, जिसे आज पाइथागोरस थ्योरम कहा जाता है। बोधायन पाइथोगोरस से ग्यारह सौ वर्ष पहले ही यह थ्योरम सिद्ध कर चुके थे, किन्तु अंग्रेजों ने गुलाम भारतीयों के ज्ञान को दुनिया के सामने आने ही नहीं दिया। उन्होंने जगदीशचन्द्र बसु के साथ भी यही किया।

खगोल विज्ञान

पृथ्वी गोल है, बताने वाले कोपर्निकस से दो हजार वर्ष पूर्व भारतीय ऋषि-मुनियों (जो वैज्ञानिक भी थे) को पृथ्वी के गोल तथा अपनी धुरी पर घूमने का ज्ञान था। एतरेय ब्राह्मण में लिखा है – “सूर्य न तो कभी उदय होता है और न कभी अस्त होता है। पृथ्वी का जो भाग उसके सामने होता है, वहाँ दिन तथा दूसरे गोलार्ध पर रात होती है। यजुर्वेद के १८ वें अध्याय के ४० वें श्लोक में बताया गया है कि ” चन्द्रमा सूर्य किरणों से प्रकाशमान है। आर्यभट्ट ने तो यहाँ तक जान लिया था कि जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। उसी समय यवकोटी में दोपहर तथा रोमक प्रदेश में अर्द्धरात्रि होती है।

पाश्चात्य विद्वान यूनान को विज्ञान का मूलस्थान मानते हैं,जबकि वास्तविकता यह है कि यूनान में ६०० ईसा पूर्व तक यह मान्यता थी कि प्रतिदिन एक नया सूर्य जन्म लेता है, जो शाम को नष्ट हो जाता है। अब आप ही यह निर्णय करें कि विज्ञान का मूलस्थान यूनान है अथवा भारत।

भारतीय कालगणना

सर्वाधिक प्राचीन एवं सर्वाधिक शुद्ध कालगणना भी भारत की ही देन है। हमारे यहाँ अनेक संवत्सर हैं, उनमें सर्वाधिक प्राचीन सृष्टि संवत्सर है। सृष्टि संवत्सर का अर्थ है, जब से सृष्टि बनी है तब से लेकर आज तक की कालगणना। यह गणना कहती है कि सृष्टि को बने एक अरब सत्तानवे करोड़ उन्तीस लाख उन्चास हजार एक सौ इक्कीस वर्ष हुए हैं। श्रीमद् भागवत महापुराण में यह उल्लिखित है। इसके विपरीत बाइबिल में लिखा है कि सृष्टि का निर्माण ४००४ ईसा पूर्व हुआ था। जबकि विज्ञान दो अरब वर्ष बताता है, जो भारतीय कालगणना को सही ठहराता है।

ग्रहण-गणना

आर्यभट्ट ने सूर्यग्रहण व चन्द्रग्रहण का सही कारण बताते हुए कहा – चन्द्रमा और पृथ्वी की परछाई पड़ने से ग्रहण होता है। आज भी हमारे यहाँ सौ-सौ वर्षों पूर्व ही पंचांग बन जाते हैं, इन्हें बनाने वाले सामान्य ब्राह्मण होते हैं। परन्तु उनकी गणना इतनी सटीक होती है कि ग्रहण के समय में एक पल का भी अन्तर नहीं आता। ऐसा शुद्ध वैज्ञानिक ज्ञान आज भी हमारे पास है। जबकि आज के यंत्र-आधारित आधुनिक मौसम विभाग की भविष्यवाणी का हाल हम जानते हैं

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