कृषि बिल पर विपक्ष का विरोध एक षड्यंत्र



लगभग एक माह पूर्व संसद के दोनों सदनों से पास हुआ कृषि बिल राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद अधिनियम/कानून का रूप ले चुका है। यह अधिनियमन किसानों को इस बात का अधिकार दे रहा है कि वे अपनी कृषि उपज को प्रतिस्पर्धात्मक बाज़ार मूल्यों पर अपने राज्य के अंदर अथवा देश के किसी भी हिस्से में बिना किसी बाधा के बेच सकें और अधिक लाभ ले सकें। किसानों की आर्थिक स्थिति में तभी सुधार आ सकता है जब उनकी उपज को लागत मूल्य से अधिक कीमत मिल रही हो। यह अधिनियमन किसानों को न केवल कृषि उपज के मूल्य निर्धारण करने में सहायता करेगा बल्कि अब उन्हें इस बात का भी अधिकार भी देगा कि वे अपनी फसल का भंडारण और ख़रीद-फरोख्त किस तरह और कहां कर सकते हैं। यह जगह किसी किसान के खेत की मेड़ भी हो सकती है और किसी फ़ैक्टरी का परिसर भी। अभी तक की व्यवस्था में किसानों के सामने इस बात की बाध्यता थी कि वह अपनी उपज मंडी में अथवा सरकार द्वारा निर्धारित एवं निर्दिष्ट स्थान पर ही बेच सकते थे। अब तक तो किसान को उसकी उपज का मूल्य निर्धारण सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) से काफी कम कीमत पर किया जाता रहा और उसके सामने इस कम मूल्य पर बेचने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नही बचता था। कृषि-किसान की इन समस्याओं से निपटने की दृष्टि से पिछले महीने सरकार ने किसानों की उपज के ख़रीद फरोख्त, भंडारण तथा खेती को लेकर तीन अधिनियम बनाए हैं-

1) कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा-सहूलियत) अधिनियम, 2020/The Farmers' Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Act, 2020;

2) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता अधिनियम/The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement on Price Assurance and Farm Services Act, 2020;

3) आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020/The Essential Commodities (Amendment) Act, 2020.

इन अधिनियमों के माध्यम से केंद्र सरकार एक ऐसा तंत्र विकसित करने का प्रयास कर रही है जिससे भविष्य में देश का किसान अपनी उपज को प्रतिस्पर्धात्मक मूल्यों पर राज्य के अंदर कहीं भी अथवा राज्य के बाहर किसी भी शहर या कस्बे में बिना किसी रोक-टोक एवं बाधा के बेच सके। इन अधिनियमों के लागू हो जाने के बाद किसान अपनी फ़सलों को एक निश्चित सीमा के दायरे तक ही बेचने के लिए बाध्य नहीं होगा और न ही उसके ऊपर किसी भी प्रकार का सीमांतक प्रतिबंध होगा। अधिनियम की प्रस्तावना एवं प्रावधानों को देखा जाये तो सरकार का इस बात पर जोर है कि एक पारदर्शी, प्रतिस्पर्धात्मक एवं वैकल्पिक व्यवस्था के अंतर्गत किसान व व्यापारी दोनों स्वतंत्रता पूर्वक कृषि उपज की ख़रीद-फरोख्त कर सकें।

द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलेशन) एक्ट 2020 के प्रावधानों को ग़ौर से देखा जाए तो क़ानूनन इस बात की व्यवस्था सुनिश्चित की गई है कि किसान अपनी कृषि उपज को उन मंडियों, जिनको विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा एपीएमसी एक्ट (APMC Act) के तहत स्थापित किया गया है, के बाहर जाकर भी विपणन (ख़रीद फरोख्त) करने को स्वतंत्र हैं। केंद्र सरकार का मानना है कि एपीएमसी एक्ट (APMC Act) के नियम कृषि उत्पाद के विपणन करने की स्वतंत्रता में न केवल बाधा उत्पन्न करते हैं बल्कि नये एवं वैकल्पिक बाजारों में होने वाले निवेश को भी प्रभावित कर रहे होते हैं। इस अधिनियम के सेक्शन 2 एम में राज्य सरकारों द्वारा एपीएमसी एक्ट (APMC Act) के तहत स्थापित की गई मार्केट यार्ड, सब-मार्केट यार्ड, मार्केट सब- यार्ड अथवा जिनको मंडी कमेटियों द्वारा लाइसेंस दिया हुआ है, को विशेष रूप से शामिल नहीं किया गया है। बल्कि इन्हें भी अन्य सभी विकल्पों की तरह ही समान महत्व का माना गया है ताकि किसान यदि चाहे तो अपनी सुविधा और मर्जी के अनुसार इनका लाभ उठा सके। इस अधिनियम के अनुसार ट्रेड एरिया से मतलब है कोई भी खेत जहां कृषि उपज पैदा होती हो, संग्रहित की जाती हो जिसमें खेत की मेड़, फ़ैक्टरी का परिसर, वेयर हाउस (माल-गोदाम), शीत-ग्रह (कोल्ड स्टोरेज) सहित कोई भी अन्य स्थान जहां से भारत के अंदर कृषि उपज की ख़रीद-फरोख्त की जा सके।

वर्तमान कानून में बाधा रहित प्रतिस्पर्धा, पारदर्शिता तथा बेहतर विक्रय मूल्य को ध्यान में रखते हुए कृषि उपज की ख़रीद फरोख्त में इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग की व्यवस्था भी सुनिश्चित की गई हैं। कोई भी कंपनी, साझेदारी फर्म, पंजीकृत समिति (पेन कार्ड सहित), कृषि उत्पादक समूह, कृषि सहकारी समितियां आदि कृषि उपज की इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग कर सकती हैं। इस कानून के सेक्शन 3 और 4 में किसानों को अपनी फसल को मंडी के अलावा राज्य के अंदर कहीं भी अथवा अन्तर्राज्यीय बाजारों में बेचने की अनुमति दी गई है। जहां तक बात है मंडी शुल्क की तो इस अधिनियम के सेक्शन 6 में प्रावधान किया हुआ है कि एपीएमसी एक्ट (APMC Act) के तहत स्थापित की गई मंडियों को मार्केट टैक्स और शेष अन्य कर वसूलने का अधिकार है और वह पूर्व की भांति अन्य शुल्क तथा कर वसूल करती रहेंगी। साथ ही अधिनियम के अनुच्छेद 14 में केंद्र सरकार को एपीएमसी एक्ट द्वारा बनाए गए असंगत प्रावधानों को निष्प्रभावी करने के साथ-साथ तर्कसंगत नियम तथा विधिक प्रावधान बनाने का अधिकार दिया गया है। यह कहा का सकता हैं कि उपरोक्त अधिनियम के माध्यम से केंद्र सरकार ने कृषि उपज की ख़रीद-फरोख्त को लेकर नियमों को केंद्रीकृत और समरूप बनाने का प्रयास किया है ताकि पूरे भारत के हर हिस्से में एक समान नियम लागू हो सकें।

द फार्मर्स ( एंपावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट 2020 के माध्यम से किसानों को अपने अनाज, दाल-दलहन तथा अन्य कृषि उपज की खेती-बाड़ी को लेकर विभिन्न समूह अथवा व्यक्तियों से आपसी सहमति एवं समझ के आधार पर प्रतिस्पर्धात्मक मूल्यों पर व्यापार की पारदर्शी व्यवस्था अथवा समझौता करने का अधिकार दिया है। इस अधिनियम के तहत जो किसान खुद खेती नही करते हैं और अभी तक जो दूसरों के साथ एक मौखिक अनुबंध के तहत खेती किया करते थे, अब वे इस तरह के कृषि-व्यापारिक समझौते में एक फ़सली सत्र से लेकर अधिकतम 5 वर्ष तक का अनुबंध कर सकते हैं। इस अधिनियम के प्रावधानों में इस बात को स्पष्ट रूप व्याख्यायित किया गया है कि खेती-बाड़ी को लेकर किए जाने वाले समझौते में किसान की ज़मीन का मालिकाना हक हमेशा ही सुरक्षित रहेगा, और ना ही भविष्य में कभी अनुबंधकर्ता उस ज़मीन पर अपना हक़ जता सकेगा।

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समझने वाली बात है कि विरोध राजनीतिक दलों का या किसानों का:

कृषि अधिनियम को लेकर के संसद के अंदर तथा बाहर, विपक्ष विरोध का वातावरण बनाने का प्रयास करता दिख रहा है क्योंकि भविष्य में यह अधिनियम बहुत सारे राज्यों के चुनावी गणित को प्रभावित करता दिखाई देगा। यहाँ इस बात को अनदेखा नही किया जा सकता है कि बिहार के अलावा आने वाले महिनो और वर्ष मे कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा के चुनाव या तो घोषित हो चुके होंगे अथवा उन राज्यों मे चुनावी हलचल शुरु हो जायेगी। इस अधिनियम का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों का यह कहना है कि यह अधिनियम न केवल किसान विरोधी है बल्कि अ-लोकतांत्रिक तरीके से इसे पारित भी कराया गया है।

कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विरोध में दो कदम आगे बढ़ते हुए कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को निर्देशित किया है कि वे संविधान के अनुच्छेद 254 (2) के अंतर्गत , इस अधिनियम के विरुद्ध विधानसभा में बिल पास कराके राष्ट्रपति के पास भेजें। संभवतः सोनिया गांधी को उनकी कोर कमेटी के सहयोगियों ने यह सलाह दी होगी कि संविधान के अनुच्छेद 254 में राज्यों को यह शक्ति दी गई है कि वे केंद्र सरकार द्वारा राज्यवर्ती सूची के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने वाले अधिनियम को चुनौती दे सकें। यह एक अलग संवैधानिक चर्चा का विषय हो सकता है कि क्या ऐसा कर पाना कांग्रेस के लिए सहज होगा अथवा वह मात्र अपने राजनीतिक विरोध की ठंडी हो चुकी तपिश में गर्माहट लाने की कुचेष्टा भर कर रही है।


निश्चित रूप से इस विषय पर चर्चा होनी चाहिए कि इस विरोध के पीछे राजनीतिक दलों का राजनीतिक स्वार्थ अधिक है या किसान भी उनके विरोध के तर्कों से सहमत हैं। किसानों के साथ-साथ आम आदमी को भी यह स्पष्ट होना चाहिये कि यदि विपक्ष वाकई में किसानों के हित की चिंता में ईमानदारी से इतना ही परेशान है तो फिर क्यों भला काँग्रेस शासित पंजाब में किसानों को अपना माल बेचते समय मंडी कमेटी शुल्क 3%, आरडीएफ टैक्स 3% व अन्य शुल्क 2.5% सहित कुल मिला कर 8.5% शुल्क देना पड़ता है। इन शुल्कों में कटौती करने का निर्णय भी राज्य सरकार को ही करना है व उसके लिये उसे केंद्र सरकार की सहमति भी नही लेनी हैं। फिर भला काँग्रेस अभी तक पंजाब के किसान को राहत क्यों नहीं दे सकी जबकि हरियाणा में यही मंडी शुल्क 1% और उत्तर प्रदेश में मंडी शुल्क 2.5% तथा आढ़तिया का कमीशन 2% तक है जो कि पंजाब के मुकाबले कहीं कम है।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति और हमारी ज्ञान परम्परा-2

वैसे तो दशकों से भारत के सभी राज्यों में किसान हित के काम कागज़ों पर ही ज्यादा हुये हैं और सत्ता से अलग होते ही ये राजनीतिक पार्टियां और राजनेता सबसे ज्यादा किसानों के हित की माला जपा करते हैं। एक बार को यह मान भी लिया जाये कि ये अधिनियम किसानों के हित मे नही है, तो इन विपक्ष-विरोधियों को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि जिन राज्यों में अन्य राजनीतिक दलों की सरकारें हैं वहाँ पर किसानों के हित में सरकारों ने अभी तक ऐसा कौन सा काम किया है जिसने किसानों को समृद्धशाली बनाया हो या जो उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार ला रहा हो। आखिर क्यों नहीं उन्होंने उन राज्यों में अपनी सरकारों के चलते कृषि किसान से संबंधित वह सब सुधार कर दिए जिसकी आशा-अपेक्षा आज वह केंद्र की भाजपा सरकार से कर रहे हैं?

यह सत्य है कि यदि किसानों को उनकी कृषि उपज की कीमत बाजार भाव से तय करने को मिले तो उससे किसानों की आर्थिक स्थिति न केवल मजबूत होगी बल्कि खेती को लेकर के किए जाने वाले पलायन और किसानों की आत्महत्या पर भी काफी हद तक अंकुश लग सकेगा। व्यवहार मे देखा जाये तो अभी तक देश भर की मंडियों के आढ़तिया किसानों से उनकी उपज, निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम कीमत पर खरीदते आये हैं। फसल के मौसम पर यह कीमत हर रोज़ बदलती रहती है। जैसे जैसे गल्ले की आमद मंडी में बढ़ती जाती हैं वैसे वैसे उसकी कीमत कम होती जाती है। मंडी समिति द्वारा निर्धारित शुल्क के साथ-साथ प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से उसे आढ़तिया, पल्लेदार आदि के शुल्क का भी भुगतान करना पड़ता हैं। मंडी शुल्क के नाम पर किसानों का दोतरफा शोषण हुआ करता है। एक जब वह फसल बेचने जाता हैं तब, दूसरा जब उसे कोई ख़रीददारी करनी होती है।

दशकों से यह एक आम धारणा बना दी गई है कि किसान को किसी भी प्रकार का कोई कर नहीं देना होता हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि एक आय-कर को छोड़ कर के उसे हर प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कर देना होता है और वह दे भी रहा है।

किसानों को मिलने वाली सब्सिडिओं पर किसान का कितना भला हुआ है और व्यापारियों सहित अन्य वर्ग को कितना हुआ है यह एक गहन शोध का विषय है और इसका आँकड़ा देने से विपक्ष का हर बुद्धिजीवी आज तक बचता आया है।

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यह विरोध किसानों के हित को ध्यान में रखकर के नहीं किया जा रहा है बल्कि उन बिचौलियों के हितों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है जो कि अन्य राजनीतिक दलों के वित्तपोषण का एक बहुत बड़ा माध्यम हुआ करते हैं। पंजाब के तरनतारन जालंधर, नकोदर आदि के गावों के किसानों से जब बात हुई तो यह बात देखने को मिली कि उनको इस अधिनियम के प्रावधानों के आशय से बिलकुल उलट बता कर भड़काने की कोशिश की जा रही है ताकि ये विरोध किसानों का अधिक, राजनीतिक दलों का कम लगे। एमएसपी को ढाल बनाकर जो चिंगारी सुलगाने की कोशिश की जा रही है उसके पीछे का सीधा सा कारण यह है कि आज तक किसानों का जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर शोषण किया जा रहा था अब वह किसानों का शोषण करने में भूमिका नहीं निभा पाएगा। इन लोगो ने बहुत ही चतुराई से मंडी कमेटियों और व्यापारियों की सांठ गांठ से कभी भी किसानों की किसी भी प्रकार के उत्पाद चाहे वो दाल, दलहन, अनाज, मसाले हों या फिर फल-फ्रूट, सब्जियां आदि, को न तो कभी प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य पर बेचने का अवसर दिया हैं और न ही ऐसी कोई व्यवस्था पनपने दी है जहाँ ये किसान खुद मालिक होकर के भी उसका भंडारण अथवा सह उत्पाद तैयार कर सके।

आज यह एक विचारणीय बिंदु है कि देश की जीडीपी में जिस खेती का योगदान आधे से कहीं अधिक हुआ करता था वह आज दहाई के अंकों में अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं। यह भी एक मंथन का विषय हो सकता है कि देश का औद्योगीकरण तथा अन्य क्रांतियां अगर कृषि-किसान की कीमत पर न करके एक सहयोगी व पूरक के रुप में करी गई होती तो भारत की अर्थव्यवस्था कहीं अधिक मजबूत और स्थायी हो गई होती। प्राथमिकता के आधार पर देश की पूर्ववर्ती सरकारों ने यदि किसानों को ही कृषि उत्पादों से सहउत्पाद बनाने के लिए प्रोत्साहित किया होता तथा ईमानदारी से उनके विपणन करने की व्यवस्था सुनिश्चित करी होती तो न किसानों को आत्महत्या करनी पडती और न ही उनको यह दिन देखने पड़ते कि वे खेती छोड़कर मजदूरी करने के लिए शहरों की तरफ पलायन करते। ईमानदारी से देखे तो अभी तक पूर्ववर्ती सरकारों ने कहने को तो कृषि को लेकर के कई हितकारी नीतियों की घोषणा की मगर उनकी नीयत किसानों के हित की कभी भी नहीं रही थी। यदि ऐसा न होता तो किसानों को सोची-समझी रणनीति के तहत सब्सिडी आदि के नाम पर विकलांग बनाने की कोशिश न की गई होती और ना ही शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले जैसे हजारों करोड़ की कमाई करने वाले किसानों का अस्तित्व बन पाया होता। ऐसे किसानों की फेहरिस्त में सुले ही अकेली किसान रूपी नेता नहीं है, उसमे बादल परिवार से लेकर के अनेक प्रदेश के नेता शामिल है जिन्होंने खेती के नाम पर धंधा करके अकूत दौलत बना रखी है। उनके विरोध करने, तिलमिलाने और चीखने-चिल्लाने का कारण, निश्चित रुप से उनके हितों पर कुठाराघात ही रहा होगी जो इस अधिनियम के बन जाने से प्रभावित हुये है।

अब किसानों के पास पहले से अधिक बेहतर विकल्प होंगे कि वह अपने खेतों से पैदा होने वाली फसलों का मूल्य उस पर लगने वाली लागत के हिसाब से तय कर सकें तथा खेती-किसानी को एक बार फिर से देश की रीढ़ साबित कर सकें, क्योकि यह निर्विवाद रुप से सत्य है कि देश की बेरोजगारी की समस्या का 50% से अधिक समाधान कृषि के काम में हैं बशर्ते किसान खुद को इन नेताओं, बिचौलियों और किसानों के कथित संगठनों के चुंगल से बचाए रखें और इनकी घेराबंदी से बाहर निकालकर स्वतंत्रता पूर्वक निर्णय लेना शुरु कर दे।

ईश्वर करे ऐसा ही हो..

आरएसएस में जुड़कर ऐसा क्या मिलता है कि युवा उस तरफ आकर्षित होते है?

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