सेक्युलरिज्म की भ्रामक अवधारणा: भारतीय परिप्रेक्ष्य में पुनर्विश्लेषण

सेक्युलरिज्म की भ्रामक अवधारणा: भारतीय परिप्रेक्ष्य में पुनर्विश्लेषण

सेक्युलरिज्म की भ्रामक अवधारणा: भारतीय परिप्रेक्ष्य में पुनर्विश्लेषण

हाल ही में पुणे में एक न्यायालय भवन की आधारशिला रखते समय आयोजित ‘भूमि-पूजन’ कार्यक्रम पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अभय एस. ओका ने टिप्पणी की कि न्यायालय परिसर में किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना या दीप-प्रज्वलन जैसे अनुष्ठानों को समाप्त कर देना चाहिए। उनके अनुसार, ऐसे अवसरों पर संविधान की प्रस्तावना के समक्ष सिर झुकाकर पंथनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे पहले, सेवानिवृत्त न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने भी सर्वोच्च न्यायालय के आदर्श वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ (जहां धर्म है, वहां जय है) को बदलने की वकालत की थी। उनका मत था कि सत्य ही संविधान है, जबकि धर्म सदा सत्य नहीं होता। उन्होंने यह भी प्रश्न उठाया कि जब अन्य राष्ट्रीय संस्थानों और उच्च न्यायालयों में ‘सत्यमेव जयते’ को आदर्श वाक्य के रूप में स्वीकार किया गया है, तो फिर सर्वोच्च न्यायालय का आदर्श वाक्य भिन्न क्यों है?

सेक्युलरिज्म की मूल अवधारणा एवं भारत में उसका आयात

इन विचारों की जड़ में धर्म की वास्तविक अवधारणा को न समझ पाने की भूल या सेक्युलरिज्म की भ्रामक परिभाषा निहित है। यह महत्वपूर्ण है कि भारतीय संविधान की मूल प्रति में सेक्युलरिज्म (पंथनिरपेक्षता) शब्द नहीं था। इसे आपातकाल (1976) के दौरान 42वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से शामिल किया गया, जब पूरा विपक्ष जेल में था। संविधान की मूल प्रति में भारत की सांस्कृतिक परंपराओं और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को दर्शाने वाले 22 चित्र शामिल थे, जिनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, हनुमान, बुद्ध, महावीर, राजा भरत, राजा विक्रमादित्य, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोबिंद सिंह, रानी लक्ष्मीबाई और वैदिक ऋषियों की छवियां प्रमुख थीं। इससे स्पष्ट है कि संविधान-निर्माताओं का दृष्टिकोण कहीं अधिक संतुलित और व्यापक था, बजाय आज के सेक्युलरवाद के समर्थकों की संकीर्ण सोच के।

वस्तुतः भारत अपनी मूल प्रकृति और स्वभाव से ही पंथनिरपेक्ष रहा है। यह विचार यूरोप से आयातित अवधारणा है, जिसकी उत्पत्ति मध्ययुगीन यूरोप में चर्च और राज्य के बीच संघर्ष के दौरान हुई थी। वहां, चर्च और शासकों के बीच टकराव के समाधान के रूप में यह अवधारणा विकसित हुई, किंतु भारत में कभी ऐसा परिदृश्य नहीं रहा। भारतीय राज्य व्यवस्था में धर्माचार्यों का शासन नहीं, बल्कि अनुशासन की परंपरा रही है। इसलिए, यूरोपीय संदर्भ में जन्मी सेक्युलरिज्म की अवधारणा को भारत में उसी रूप में लागू करना न केवल अनुचित है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत की अनदेखी भी है।

भारतीय संदर्भ में धर्म और सेक्युलरिज्म

भारत में ‘धर्म’ शब्द को रिलीजन (Religion) या मजहब का पर्याय मानने से ही भ्रम उत्पन्न हुआ है। धर्म मात्र पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक समग्र जीवन-दृष्टि है, जो व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और ब्रह्मांडीय व्यवस्था को धारण करता है। इसके विपरीत, रिलीजन या मजहब कुछ निश्चित आस्थाओं-मान्यताओं तक सीमित होते हैं, जिनमें विश्वास करने वाले लोग किसी विशेष समुदाय का हिस्सा बनते हैं।

‘धर्म’ का आधार कर्तव्य और नैतिकता है, न कि केवल आस्था। यही कारण है कि कोई व्यक्ति धार्मिक आस्थाओं में विश्वास न रखने के बावजूद धार्मिक यानी नैतिक और सदाचारी हो सकता है। ‘सेक्युलर’ शब्द का हिंदी अनुवाद ‘धर्मनिरपेक्ष’ किए जाने से भी कई भ्रांतियां उत्पन्न हुई हैं। वास्तव में, सेक्युलरिज्म धर्म से उदासीन होने की वकालत नहीं करता। बल्कि, इसे भारतीय संदर्भ में समझने पर यह स्पष्ट होता है कि राजकीय संस्थानों में सांस्कृतिक परंपराओं का पालन कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता का अभिन्न अंग है

उदाहरण के लिए:

  1. दीप-प्रज्वलन की परंपरा – यह किसी उपासना पद्धति का भाग न होकर भारत की ज्ञान-परंपरा का प्रतीक है।
  2. भूमि-पूजन – यह किसी धर्म विशेष की पूजा विधि नहीं, बल्कि प्रकृति और धरती माता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की भारतीय परंपरा है।
  3. नव-निर्माण से पूर्व नारियल फोड़ना – यह किसी पूजा का अंग नहीं, बल्कि भारतीय समाज में शुभ कार्यों को मंगलमय बनाने की एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है।

धर्म, संविधान और न्याय व्यवस्था का संबंध

यह तर्क दिया जाता है कि संविधान और न्याय व्यवस्था धर्म से अलग होनी चाहिए। लेकिन वास्तव में, संविधान और धर्म में टकराव नहीं, बल्कि सहयोग का भाव निहित है

  1. संविधान न्याय, निष्पक्षता और समानता का संरक्षक है, जबकि धर्म इन मूल्यों को नैतिक आधार प्रदान करता है।
  2. न्याय व्यवस्था में कई ऐसे नैतिक प्रश्न उठते हैं, जहां केवल कानून पर्याप्त नहीं होता। ऐसे मामलों में धार्मिक सिद्धांत और नैतिकता न्यायिक निर्णयों का मार्गदर्शन कर सकते हैं
  3. धर्म और सत्य में कोई विरोधाभास नहीं – धर्म जीवन को दिशा देने वाला मार्गदर्शक है, जबकि सत्य वस्तुनिष्ठता प्रदान करता है। यदि सत्य उत्तर देता है कि ‘क्या है’, तो धर्म उत्तर देता है कि ‘क्या होना चाहिए’

भारत में सेक्युलरिज्म की पुनर्परिभाषा की आवश्यकता

आज आवश्यकता है कि हम सेक्युलरिज्म की यूरोपीय परिभाषा को छोड़कर इसे भारतीय संदर्भ में पुनर्परिभाषित करें। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जो ‘पंथनिरपेक्षता’ (Secularism) है, उसका अर्थ सभी पंथों का समान सम्मान और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा होना चाहिए, न कि किसी विशेष सांस्कृतिक परंपरा का निषेध।

यदि हम भारतीय सेक्युलरिज्म को सही परिप्रेक्ष्य में समझें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि न्यायालय में दीप-प्रज्वलन, भूमि-पूजन या भारतीय परंपराओं का पालन किसी मजहब या उपासना पद्धति का प्रचार नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत का सम्मान है

इसलिए, आज आवश्यकता है कि सेक्युलरिज्म की भ्रामक अवधारणा से बाहर निकलकर भारतीय मूल्यों और परंपराओं को सही तरीके से समझा जाए और उन्हें संविधान के मूलभूत सिद्धांतों के साथ संतुलित किया जाए। यही वास्तविक पंथनिरपेक्षता होगी, जो भारत की आत्मा और उसके ऐतिहासिक स्वभाव के अनुकूल होगी


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