12 जून 1975: लोकतंत्र की मशाल और सत्ता का अंधेरा



12 जून 1975 की सुबह। इलाहाबाद की गलियों में सूरज की किरणें धीरे-धीरे फैल रही थीं, लेकिन शहर के उच्च न्यायालय में एक ऐसी आग जल रही थी, जो भारत के लोकतंत्र के इतिहास को हमेशा के लिए बदल देगी। 


न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा अपने चैंबर में बैठे थे। उनके सामने मेज पर 258 पन्नों का एक दस्तावेज था—चार साल की मेहनत, दबावों का सामना, और साहस का प्रतीक। यह था देश की सबसे ताकतवर महिला, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, के खिलाफ एक ऐतिहासिक फैसला। यह कहानी उस एक दिन की है, जब कानून ने सत्ता को चुनौती दी।

रायबरेली का रण और राजनारायण की जिद

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कहानी की शुरुआत चार साल पहले, 1971 के लोकसभा चुनाव से होती है। रायबरेली की धूल भरी गलियों में, इंदिरा गांधी, जिन्हें "लौह महिला" कहा जाता था, ने अपने प्रतिद्वंद्वी राजनारायण को भारी अंतर से हराया था। राजनारायण, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के एक जुझारू नेता, जिन्हें लोग प्यार और मजाक में "जोक" कहते थे, इस हार को दिल से नहीं मान सके। उनका दावा था कि इंदिरा ने जीत के लिए गलत रास्ते अपनाए। चुनावी धांधली, अधिक खर्च, और सबसे बड़ा आरोप—सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग। 

राजनारायण ने हार नहीं मानी। 15 जुलाई 1971 को, उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। उनका कहना था कि इंदिरा ने यशपाल कपूर, एक गजटेड अधिकारी, को अपने प्रचार के लिए इस्तेमाल किया, जो Representation of People Act, 1951 की धारा 123(7) का उल्लंघन था। इसके अलावा, रायबरेली में प्रचार के लिए सरकारी संसाधनों और सुरक्षा व्यवस्था का भी दुरुपयोग हुआ। यह याचिका सिर्फ एक सीट की लड़ाई नहीं थी; यह थी भारत के लोकतंत्र की जवाबदेही की जंग।

न्यायमूर्ति सिन्हा का इम्तिहान


इलाहाबाद उच्च न्यायालय का कोर्ट रूम नंबर 1। सुबह के 10 बजे। हवा में तनाव था। न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा की कुर्सी पर बैठे एक साधारण से दिखने वाले जज का चेहरा शांत था, लेकिन उनके मन में तूफान चल रहा था। चार साल से इस मामले की सुनवाई चल रही थी। सिन्हा जानते थे कि उनके सामने बैठी है देश की प्रधानमंत्री, जिनके एक इशारे पर सरकारें बनती-बिगड़ती थीं। उनके निजी सचिव पर सीआईडी की नजर थी। दबाव के तमाम प्रयास हुए—धमकियाँ, लालच, और सत्ता का डर। लेकिन सिन्हा अडिग थे।

उन्होंने चार साल तक हर सबूत को बारीकी से देखा। यशपाल कपूर ने 7 जनवरी 1971 से इंदिरा के लिए प्रचार शुरू किया, जबकि उनका इस्तीफा 25 जनवरी को स्वीकार हुआ। यह सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का स्पष्ट मामला था। रायबरेली में प्रचार के लिए पुलिस, सुरक्षा, और अन्य सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल भी हुआ। सिन्हा ने हर तथ्य को तौला, हर गवाही को परखा। और अब, वह पल आ गया था, जब उन्हें फैसला सुनाना था।

वह ऐतिहासिक क्षण


कोर्ट रूम में सन्नाटा था। वकील, पत्रकार, और कुछ गिने-चुने लोग साँस रोके सिन्हा की ओर देख रहे थे। उनकी आवाज गूँजी:


> "श्रीमती इंदिरा गांधी को 1971 के रायबरेली लोकसभा चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया जाता है। उनका चुनाव रद् द किया जाता है, और उन्हें छह वर्ष तक किसी भी चुनाव में हिस्सा लेने के लिए अयोग्य घोषित किया जाता है।"


यह शब्द कोर्ट रूम की दीवारों से टकराए और पूरे देश में गूँज उठे। सिन्हा ने न सिर्फ इंदिरा का चुनाव रद् द किया, बल्कि राजनारायण को विजयी घोषित किया। यह भारत के इतिहास में पहला मौका था, जब किसी सत्तारूढ़ प्रधानमंत्री को भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहराया गया। यह फैसला कानून की जीत था, जो बता रहा था कि सत्ता कितनी भी बड़ी हो, कानून उससे ऊपर है।


इंदिरा का तूफान और लोकतंत्र पर साये


इलाहाबाद की सड़कों पर खबर फैलने लगी। लोग कोर्ट के बाहर जमा होने लगे। कुछ को विश्वास नहीं हो रहा था कि देश की सबसे ताकतवर नेता को कोर्ट ने दोषी ठहराया। दिल्ली में, 7, रेसकोर्स रोड पर, इंदिरा गांधी के आवास पर हलचल मच गई। उनके करीबी सलाहकार—सिद्धार्थ शंकर रे, संजय गांधी, आर. के. धवन—तुरंत जुट गए। इंदिरा ने शुरू में इस्तीफा देने पर विचार किया। उनका इस्तीफा टाइप भी करवाया गया। लेकिन सलाहकारों ने उन्हें रोक लिया। सिद्धार्थ शंकर रे ने कहा, "इस्तीफा देना कमजोरी होगी। हमें सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए।"


उसी दिन, इंदिरा के समर्थकों ने दिल्ली और अन्य शहरों में रैलियाँ निकालीं। "इंदिरा इज इंडिया" के नारे लगे। लेकिन दूसरी ओर, जयप्रकाश नारायण और विपक्षी नेताओं ने इस फैसले को लोकतंत्र की जीत बताया। जे.पी. का संपूर्ण क्रांति आंदोलन और तेज हो गया। देश दो खेमों में बँट गया—एक ओर इंदिरा के समर्थक, दूसरी ओर लोकतंत्र के पैरोकार।

लोकतंत्र पर मँडराता खतरा


12 जून की शाम तक, इंदिरा गांधी ने फैसला कर लिया था कि वे इस्तीफा नहीं देंगी। यह निर्णय न सिर्फ उनकी व्यक्तिगत सत्ता की जिद थी, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक मोड़ भी। सिन्हा का फैसला एक मशाल था, जो बता रहा था कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं। लेकिन इंदिरा के इस फैसले ने उस मशाल को बुझाने की शुरुआत कर दी। तेरह दिन बाद, 25 जून 1975 को, इंदिरा ने राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर दी, जिसने भारत के लोकतंत्र को अंधेरे में धकेल दिया।

12 जून का सबक


12 जून 1975 का दिन भारत के इतिहास में एक सुनहरा पल था। न्यायमूर्ति सिन्हा ने दिखाया कि साहस और निष्पक्षता के साथ कानून की रक्षा की जा सकती है। लेकिन यह दिन एक चेतावनी भी था—जब सत्ता अपनी हदें लाँघती है, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और संवैधानिक मूल्य ही लोकतंत्र की नींव हैं। 12 जून 1975, वह दिन था, जब कानून ने सत्ता को ललकारा, लेकिन सत्ता ने जवाब में लोकतंत्र पर प्रहार करने की ठान ली।



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