दीपोत्सव अर्थात आत्मदीपो भवः अंधकार के साथ अज्ञान से मुक्ति का पर्व भी है दीपावली
दीपोत्सव अर्थात आत्मदीपो भवः
अंधकार के साथ अज्ञान से मुक्ति का पर्व भी है दीपावली
सनातन परंपरा में दीपावली सबसे बड़ा त्यौहार है। यह सुख समृद्धि, अंधकार और अज्ञान से मुक्ति के साथ आत्मा के आनंद का पर्व है। आत्मा के आनंद केलिये व्यक्ति को अविद्या के आवरण से मुक्त होकर अपने लिये स्वयं प्रकाशदीप बनना होता है। इसी का अभ्यास है दीपोत्सव और इसके आयोजन का विधान।
भारतीय परंपरा में कोई भी तीज त्यौहार या उत्सव साधारण नहीं होते। वे पर्याप्त शोध और अनुसंधान के बाद निर्धारित किये गये हैं। इनमें व्यक्ति निर्माण, कुटुम्ब समन्वय, समाज उत्थान और राष्ट्र निर्माण का संकल्प होता है। यही भाव दीपोत्सव में है। दीपावली केलिये तिथि निर्धारण से लेकर इसके आयोजन विधान सबमें गहरे संदेश हैं। ये संदेश बहुआयामी हैं। पहला संदेश अपने व्यक्तित्व को अति उन्नत बनाने का है। व्यक्तित्व की यह उन्नति समग्र रूप से होनी चाहिए। शारीरिक, मानसिक आर्थिक और आत्मिक भी। दूसरा परिवार कुटुम्ब और समाज के बीच समन्वय हो। तीसरा प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन और राष्ट्र की समृद्धि भी इस त्यौहार में निहित है।
दीपावली पर पूजा आराधना के साथ समृद्धि का उत्सव भी माना जाता है। इसमें मिट्टी के खिलौने से लेकर स्वर्ण आभूषण और घर मकान से लेकर जमीन जायदाद सभी प्रकार की चल अचल संपत्ति का क्रय विक्रय करना शुभ माना जाता है। इससे मुद्रा का परिचालन होता है। समाज का कोई व्यक्ति या वर्ग ऐसा नहीं जो मुद्रा के परिचालन से अछूता रह जाये। इसलिये इसके केन्द्र में धन की देवी लक्ष्मी होती हैं। इस पांच दिवसीय त्यौहार का आरंभ कार्तिक माह कृष्णपक्ष त्रियोदशी से होकर शुक्ल पक्ष द्वितीया तक चलता है। इन पाँच दिनों के पाँच स्पष्ट संदेश हैं। पहला दिन धन्वंतरि जयंति अर्थात आरोग्य की साधना, दूसरा रूप चौदस यानि मानसिक उन्नययन, तीसरा अमावस यनि आत्म जागरण, चौथा गोवर्धन यनि पर्यावरण संरक्षण और पाँचवा भाईदूज अर्थात कुटुम्ब समन्वय। यदि पाँचों को एक स्वरूप में पिरोकर समझें तो इसका एक मात्र उद्देश्य स्वयं को उन्नत बनाना, प्रकाश मान होकर विन्दु से विराट की यात्रा करना है।
आत्मा दीपोभवः अर्थात अपना दीप स्वयं बनो
भारतीय और पाश्चात्य चिंतन में एक आधारभूत अंतर है। पश्चिमी जगत का अनुसंधान दृश्यमान भौतिक पदार्थों से आरंभ हुआ और अब वे अदृष्यमान एवं अभौतिक की यात्रा कर रहे है। जबकि भारतीय चिंतन अदृश्यमान से आरंभ होता है। यह अलौकिक से लौकिक की यात्रा है।अदृष्यमान या अलौकिक के चिंतन को आध्यात्म कहा गया। इसके केन्द्र में आत्मा है। जो परमात्मा का अंश है और प्रकाशमान भी। लेकिन वह अज्ञान और अविद्या से ढंकी होती है। इसलिये जीवन प्रकाशमान नहीं होता। इसलिये भारतीय अध्ययन ही नहीं जीवन शैली में दोनों प्रकार का अभ्यास की झलक होती है। देह के सभी अंगों और भौतिक आवश्यकता की भी और अदृश्यमान भाव जगत की भी। दोनों के समन्वय से ही व्यक्ति प्रतिष्ठित और ज्ञानवान अर्थात प्रकाशमान बनता है। दायित्वबोध, सत्याचरण, धर्म के प्रति आबद्ध होना ही एक प्रकाशमान व्यक्तित्व की पहचान है। यह आत्मा की जाग्रति से संभव है। लेकिन यदि आत्मा जाग्रत नहीं है तो ऐसे व्यक्ति की गणना अज्ञान के अंधकार डूबे व्यक्तियों में होती है। ऐसा व्यक्ति सदैव काम, क्रोध, मद, लोभ और अहंकार में लिप्त ही दिखाई देता है। इसलिये भारतीय चिंतन आत्म ज्ञान पर जोर दिया गया है। इस आत्मज्ञान का संबंध मनुष्य के अवचेतन से होता है। जिसका केन्द्र उसकी आत्मा होती है। आत्मा को अनंत की ऊर्जा से जोड़ने का माध्यम यह अवचेतन की शक्ति ही होती है। जो सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जुड़ी होती है। आधुनिक विज्ञान ने भी माना है कि मनुष्य के चेतन की क्षमता केवल पन्द्रह से बीस प्रतिशत है जबकि अवचेतन की क्षमता अस्सी से पिच्चयासी प्रतिशत। यदि मनुष्य अपने अवचेतन की ऊर्जा जाग्रत करके चेतन की ओर संवाहित करने में सक्षम हो जाय तो उसकी प्रज्ञा, दक्षता और कार्य क्षमता में अनोखी वृद्धि हो सकती है।
दीपावली के इन पाँच दिनों पूजा उपासना की पूरी प्रक्रिया आवचेतन की आत्म शक्ति को जाग्रत करने की ही है। इसीलिए इसे प्रकाशोत्सव कहते हैं। जो दीप वल्लिकाओं से संसार को भी प्रकाशमान करता है। और आरंभिक तीन दिनों की चिंतन एवं साधना क्रिया से आत्म प्रकाश भी जाग्रत करता है।
भारतीय चिंतन में अज्ञान को अंधकार का और ज्ञान को प्रकाश का पर्यायवाची माना है। मनुष्य की केन्द्रीभूत चेतना आत्मा होती है। ईश्वर "ज्योति स्वरूप" है और आत्मा परमात्मा का अंश इसलिए ऋग्वेद में आत्मा को प्रकाशमान कहा गया है। लेकिन प्रकाशमान होकर भी आत्मा अज्ञान अथवा अविद्या से ढकी रहती है, मन की व्यापकता और चित्त का भौतिक आकर्षणों में चित्त के डूबे रहने से आत्म चेतना सुसुप्त रहती है। आत्मा को सुषुप्ति से दूर करने केलिये, चित्त का समन्वय और मन की शांति आवश्यक होती है। जब शरीर के पाँचों कोष एकाग्र होकर आव्हान करते हैं तब ही आत्मदीप से प्रकाश प्रस्फुटित होता है। जो दीपावली पूजन और उसकी प्रार्थना में निहित है। दीपावली पर पूजन और आरती के साथ प्रार्थना की जाती है- "असतो मा सदा गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय" अर्थात "मुझे असत्य से सत्य की ओर, एवं अंधकार से प्रकाश की ले चलो।" इस प्रार्थना में अवचेतन की सामर्थ्य का चेतन में उपयोग करने की विनती है। और आत्म प्रकाश विकसित करके संसार को अज्ञान के अंधकार से मुक्त करने की प्रार्थना है। दीपक जलाकर प्रकाश तो हो गया फिर भी अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलने की प्रार्थना। यह प्रार्थना "ज्ञान के प्रकाश" की है। प्रकाश को ज्ञान का और अज्ञान को अंधकार का पर्यायवाची माना गया है। अज्ञान और अंधकार दोनों प्राकृतिक होते हैं जबकि प्रकाश और ज्ञान के लिये पुरुषार्थ करना होता है। वह सूर्य के उदित होकर प्रकाश प्रदाय करने से हो अथवा मनुष्य द्वारा दीपक जलाने से हो, दोनों में प्रयत्न, परिश्रम और पुरुषार्थ निहित है। ठीक यही प्रक्रिया ज्ञानार्जन की है। जो माता द्वारा संसार दिखाने और शब्द सिखाने से आरंभ होती है। फिर विद्यालय में अध्ययन के बाद आत्म जाग्रति आरंभ होती है। आत्म जाग्रति का माध्यम कोई सद्गुरु भी हो सकते हैं, कोई घटना, कोई प्रतीक भी हो सकता अथवा कोई शब्द भी हो सकता है। इसे हम भगवान दत्तात्रय, भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी से लेकर दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद आदि के प्रकाशमान होने से समझ सकते हैं। इन सब विभूतियों की आत्म ज्योति केवल एक दृश्य देखकर जाग्रत हुई। जबकि महर्षि बाल्मीकि, महाकवि तुलसीदास, कालिदास जी आत्म प्रकाश कुछ सुनकर प्रकाशित हो गया। लेकिन कोई दृश्य अथवा कोई शब्द तभी आत्म प्रकाश जाग्रत कर पायेगा जब केवल शरीर ही नहीं मन, बुद्धि, चित्त और वृत्ति एकाग्र हो। स्वयं प्रकाशमान होकर ही भगवान बुद्ध ने आव्हान किया था- "आत्मदीपो भव:" अर्थात अपने "दीप स्वयं बनों" इस आव्हान में आत्म शब्द बहुआयामी है। इसका अर्थ "आत्मा" भी है और "स्वयं" भी। प्रार्थना में असत्य का प्रतीक संसार की भौतिकता है और अंधकार अज्ञान का प्रतीक। प्रार्थना के बाद स्वत्व जागरण केलिये अपना दीप स्वयं बनने का आव्हान किया गया। यदि दीपावली की तिथि के निर्धारण और आरंभिक तीन दिनों का पूजन विधान देखे तो यह आत्म जागरण की अद्भुत प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है।
दीपोत्सव की तिथि निर्धारण और मनाने का पूजन विधान
भारतीय चिंतन का पूरा अनुसंधान आत्म जागरण केलिये है। इस निष्कर्ष से जन सामान्य लाभान्वित हो, इसके लिये तीज त्यौहार मनाने में कुछ ऐसी क्रियाएँ निश्चित कीं गईं जिससे संपूर्ण समाज और प्रत्येक व्यक्ति भी आत्म जाग्रति, आत्मवोध और आत्मज्ञान से युक्त हो सके।
दीपावली पांच दिवसीय त्यौहार है। यह कार्तिक कृष्णपक्ष त्रियोदशी से आरंभ होता है और शुक्ल पक्ष द्वितीया को समापन। जिसमें मुख्य पूजन अमावस्या के दिन होता है। वर्ष में कुल बारह अमावस होतीं हैं। सभी बारह अमावस में कार्तिक की अमावस अपेक्षाकृत अधिक अंधकार मय होती है। इसके दो कारण होते हैं एक तो वह कुछ ऐसी स्थिति में जिसमें सूर्य का परावर्तित प्रकाश भी कम आता है। दूसरा बादलों की विदाई की ऋतु होती है।चंद्रमा स्वयं प्रकाशमान ग्रह नहीं है। वह सूर्य के प्रकाश को ही परावर्तित करता है। सूर्य और चंद्र दोनों गृह सतत गतिमान रहते हैं। प्रकाश एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। दिन और रात की प्रदीप्ता में अंतर के कारण ही प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस पर प्रकाश और अंधकार दोनों के अनुपात में अंतर होता है। कार्तिक अमावस पर दोनों ग्रहों की स्थिति कुछ ऐसी बनती है, या दोनों कुछ ऐसे कोण पर स्थित होते हैं कि इस रात के अंधकार में गहरापन अधिक होता है। अंधकार की यह गहनता ही प्राणी को एक चुनौती होती है। इसी संकल्प का प्रकटीकरण दीप मालिका है। जिससे अमावस की घनघोर रात्रि म भी प्रकाशमान हो उठती है । दीपोत्सव यह संदेश भी है कि परिस्थिति कितनी भी विषम हों, अंधकार कितना ही गहन हो, यदि उचित दिशा में उचित प्रयत्न किया जाय तो अनुकूल आनंद हो सकता है। अंधकार भी प्रकाश में परिवर्तित हो सकता है। पुरुषार्थ से अंधकार सदैव परास्त होता है । पुरुषार्थ की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहने का संदेश ही दीपावली में है। इस रात पहले लक्ष्मीजी का पूजन होता है । फिर घर के भीतर और बाहर दीप जलाये जाते हैं। लक्ष्मी पूजन के लिये पहले आरती केलिये एक दीप जलाया जाता है फिर अन्य दीपक प्रज्वलित किये जाते हैं। घर के भीतर हर कौने और बाहर द्वार, आँगन सब जगह दिये रखे जाते हैं, पड़ौस में भी दिये के साथ प्रसाद भी भेजा जाता है । यह संदेश गृहलक्ष्मी से जुड़ा है । ध्यान देने की बात यह है कि समुद्र मंथन से देवी लक्ष्मी तो अष्ठमी को प्रकट हुईं थीं। उस तिथि को महालक्ष्मी पूजन भी हो गया है। फिर पुनः कार्तिक अमावस को लक्ष्मी पूजन होता है वस्तुतः कार्तिक अमावस की इस पूजन में देवी लक्ष्मी तो एक प्रतीक रूप में हैं। वास्तव में यह दिन तो गृहलक्ष्मी के लिये समर्पित है । गृहलक्ष्मी अर्थात गृह स्वामिनी। भारतीय चिंतन में घर गृहस्थी का स्वामी पुरूष या पति नहीं होता । पत्नि होती है, नारी होती है। नारी को ही गृहलक्ष्मी, गृह स्वामिनी या घरवाली कहा गया है । पुरुष को गृहविष्णु या गृहदेवता नहीं कहा जाता। नारी के नाम के आगे "देवी" उपाधि स्वाभाविक रूप से लगती है। नारी के नाम के आगे "देवी" सदैव लगाया जाता है । नारी की संतुष्टि या आवश्यकता पूर्ति की बात ही दीपावली की तैयारी में है। दीपावली पर सदैव घर गृहस्थी की वस्तुएँ ही क्रय की जातीं हैं। वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार सामग्री सब का संबंध नारी से होता है। एक और बात महत्वपूर्ण है। दीपावली से पहले गुरु पूर्णिमा, रक्षाबंधन, पितृपक्ष आदि तिथियाँ निकल चुकीं होतीं हैं। इन तिथियों पर गुरु केलिये बहन के लिये, वरिष्ठ जनों के लिये यहाँ तक कि पितृपक्ष में पुरोहितजी के लिये भी वस्त्र या अन्य प्रकार की भेंट भोजन का दायित्व पूरा हो जाता है। केवल गृह स्वामिनी नारी शेष रह जाती है। इसलिये कार्तिक मास की अमावस की तिथि गृहस्वामिनी या गृह लक्ष्मी की महत्ता निर्धारित है। इसलिए दीपावली की तैयारी हो या धन तेरस की खरीदारी इसमें गृह स्वामिनी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। वहीं गृह स्वामिनी को यह संदेश भी है कि वह पहले परिवार, कुटुम्ब और समाज के हित की चिंता करे फिर अपनी इच्छा पूर्ति का प्रयास करे। ऋग्वेद से लेकर अनेक पुराण कथाओं तक समाज को यह स्पष्ट संदेश है कि वही घर प्रकाशमान होगा जहाँ नारी संतुष्ट और प्रसन्न है। घर की देवी यदि अपनी पसंद और आवश्यकता पूर्ति से संतुष्ट है तभी घर प्रकाशमान होता है । यह सामर्थ्य नारी में ही है कि वह अमावस की अंधेरी रात्रि को भी प्रकाशमान बना सकती है। दीपावली के दिन वही पूरे घर को दीपों से प्रकाशमान करती है इसलिये यह त्यौहार देवी लक्ष्मी के पूजन प्रतीक रूप में गृहलक्ष्मी को ही समर्पित है।
आत्म प्रकाश अथवा आत्म ज्ञान कभी भी व्यक्तिगत नहीं होता। जिस प्रकार एक दीपक प्रज्वलित होकर अपनी पूरी सामर्थ्य से परिवेश को प्रकाशमान बनाने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार आत्मदीप से प्रकाशमान व्यक्ति अपने संपूर्ण परिवेश की मानवता को प्रकाशित करने का प्रयत्न करता है। धनवंतरी जयंति की दिनचर्या जहाँ आरोग्य देने वाली वहीं अपनी सामर्थ्य और इच्छा के समन्वय से वस्तुओं का क्रय करने से मन चित्त शांत होता है, मन प्रसन्न होता है। इस प्रसन्नता के अगले दिन रूप चतुर्दशी ब्रह्म मुहूर्त से उठकर पूरा ध्यान पूजा उपासना और घर परिवार की प्रसन्नता पर सिमटता है। तीसरे दिन मुहूर्त के साथ पूजन। इन तीन दिनों में मन कोई उड़ान नहीं होती। कोई नकारात्मक भाव नहीं रहता। न किसी के प्रति राग में, न द्वेष, न आसक्ति होती है न विरक्ति का भाव आता है, सबको ससहेजकर चलने का भाव उत्पन्न होता है लेकिन इसमें निष्प्रह की भावना होती है। यही भाव मानवता का प्रतीक है। यह भाव दीपावली की तैयारी में जाग्रत होता है। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध ने आत्म साधना से आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ। भगवान महावीर ने तो परम ज्योति में विलीन होने केलिये भी दीपावली का दिन चुना जबकि भगवान बुद्ध के कपिलवस्तु लौटने का दिन भी दीपावली का है। भगवान बुद्ध ने कपिलवस्तु लौटकर संपूर्ण समाज से वैदिक आव्हान "आत्मदीपो भवः" को स्थानीय शब्दों में "आप्प दीपो भव" आव्हान किया। स्वत्व का जागरण ही आत्म जागरण है। भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, शिवाजी महाराज, लोकमाता अहिल्याबाई, रानी लक्ष्मीबाई, ऊदा पासी आदि अनेक विभूतियों ने अपने आत्मदीप से ही स्वाभिमान केलिये संघर्ष किया। प्रत्येक व्यक्ति में यह क्षमता होती है, आभा होती है, प्रज्ञा होती है कि वह स्वयं आलोकित होकर संसार को आलोकित करे। प्रतिवर्ष यही संदेश लेकर दीपावली आती है। पर इसके लिये आत्मदृष्टि भी चाहिये।
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