गोवर्धन पूजा: पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता और दायित्व बोध का अद्भुत संदेश

गोवर्धन पूजा: पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता और दायित्व बोध का अद्भुत संदेश

भारतीय वाड्मय में प्रत्येक तीज त्यौहार और परंपरा प्रकृति, समाज तथा मानवीय मनोविज्ञान के गहन अनुसंधान पर आधारित है। दीपोत्सव की पाँच दिवसीय त्यौहार श्रृंखला में चौथे दिन, दीपावली के ठीक अगले दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन पूजन एवं अन्नकूट का आयोजन होता है। यह पर्व भगवान श्रीकृष्ण से संबंधित है और इसमें सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण एवं मानवीय दायित्व बोध का अद्भुत संदेश निहित है।
पूजा का विधान और गौ-संरक्षण का संदेश
परंपरानुसार, इस दिन घर की महिलाएँ प्रातःकाल गाय के ताज़े गोबर से पर्वत के आकार का एक छोटा प्रतीक बनाती हैं और उसे सजाकर पूजन करती हैं। वहीं, परिवार के सभी पुरुष गाय सहित सभी पालतू पशुओं का श्रृंगार करते हैं। पशुओं को सम्मान देने के लिए उनके गले में घंटियों की माला तथा शरीर पर रंग-बिरंगी आकृतियाँ बनाई जाती हैं। गाय की विशेष पूजा और आरती उतारी जाती है। गोवर्धन के प्रतीक के लिए गाय के गोबर का चुनाव गौ-संरक्षण के साथ-साथ जैविक खाद और वैकल्पिक ऊर्जा (जैसे सोलर ऊर्जा) के महत्व को भी दर्शाता है, जिसका ज्ञान भारतीय पूर्वजों को हज़ारों साल पहले था।
गोवर्धन पूजन की पौराणिक कथा
गोवर्धन पूजा की कथा भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने से जुड़ी है, जिसका विस्तार से उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण और श्रीमद्भागवत में मिलता है।
प्राचीन काल में, ब्रजवासी इंद्र देव की पूजा करते थे, जिन्हें वर्षा का देवता माना जाता था। भगवान श्रीकृष्ण ने समाज से आह्वान किया कि देवराज इंद्र से पहले पर्वतों का पूजन होना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि वर्षा भले ही इंद्र करते हों, लेकिन उसका संतुलन तो पर्वत से होता है। पर्वत ही बादलों के साथ समन्वय बनाकर जल स्रोतों और वनों को सुरक्षित रखते हैं, जिससे संपूर्ण प्राणी जगत का जीवन संभव होता है। उनके आह्वान पर समस्त ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे।
इससे कुपित होकर इंद्रदेव ने ब्रज में भारी वर्षा और बाढ़ ला दी। तब भगवान श्रीकृष्ण ने सभी ग्वाल बालों और नागरिकों के साथ मिलकर गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठाकर एक छत्री जैसा काम किया और पूरे ब्रजमंडल को बाढ़ से सुरक्षित किया। अपनी भूल का आभास होने पर इंद्रदेव ने स्वयं आकर गोवर्धन पर्वत पूजन को मान्यता दी।
इस उत्सव के बाद, ब्रजवासियों ने अपने-अपने घरों से अपनी सामर्थ्य के अनुसार भोजन सामग्री लाकर मिलाई और सबने एक साथ बैठकर भोजन किया। तभी से गोवर्धन पूजन के साथ अन्नकूट की परंपरा भी आरंभ हुई।
पर्व के गहरे सामाजिक और पर्यावरणीय संदेश
गोवर्धन पूजन में समाज जीवन की उन्नति के लिए कई गहरे संदेश छिपे हैं:
 * पर्यावरण संरक्षण (Nature's Wisdom): यह पर्व स्पष्ट संदेश देता है कि संपूर्ण प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा पूरी शक्ति से करनी चाहिए। यह भारतीय ज्ञान परंपरा की श्रेष्ठता का प्रमाण है कि हज़ारों वर्ष पहले ही यह स्थापित हो गया था कि पर्वतों की सुरक्षा से ही नदी, तालाब, वन और औषधीय वनस्पति सुरक्षित रहती है।
 * सामाजिक समरसता (Unity and Equality): अन्नकूट की परंपरा सामाजिक समरसता का अद्भुत उदाहरण है। इसमें सभी के घरों से लाई गई भोजन सामग्री को मिलाकर, बिना किसी जाति, वर्ग, या आर्थिक भेद-भाव के, सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं।
 * सामूहिक शक्ति और संकल्पशीलता (Collective Strength and Resolve): यह पर्व सिखाता है कि संकट कितना भी गंभीर क्यों न हो (जैसे इंद्र का कोप), यदि पूरा समाज संगठित है और सब मिलकर काम करते हैं, तो बड़े से बड़े संकट का समाधान किया जा सकता है। यह प्रत्येक नागरिक को अपने उचित कर्म-कर्त्तव्य करने के साथ-साथ प्रकृति के संरक्षण के दायित्व का भी बोध कराता है।
गोवर्धन पूजन में नेतृत्वकर्ता (भगवान श्रीकृष्ण) की कुशलता का भी संदेश है, जिनके दूरदर्शी और संकल्पशील नेतृत्व के कारण ही समाज सुरक्षित रहा। यह परंपरा भारतीय जन को अपने अतीत के गौरव, ज्ञान परंपरा और सामूहिक शक्ति के महत्व को समझने का आह्वान करती है।

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