संविधान की हत्या के पचास वर्ष-2 क्रूरता की पराकाष्ठा और धैर्य से प्रतिउत्तर देते लोकतंत्र के सेनानी


मीसा की कलुष स्मृतियाँ

क्रूरता की पराकाष्ठा और धैर्य से प्रतिउत्तर देते लोकतंत्र के सेनानी


25 जून की रात भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की वह भयावह रात है जिसे याद करते ही आज भी असंख्य देशभक्तों की आत्मा सिहर उठती है। 1975 की वह रात थी, जब संविधान को ताक पर रखकर, भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने व्यक्तिगत राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए संपूर्ण राष्ट्र को आपातकाल के अंधकार में ढकेल दिया। इस आपातकाल का आधार बना – मीसा, यानी मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट।

भाग 1 इस लिंक से पढ़ें

क्रांति की चिंगारी

राजनीति के गलियारों में बेचैनी पहले से थी। भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग के आरोपों के चलते इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया। नैतिकता का तकाजा था कि वह त्यागपत्र देतीं, लेकिन उन्होंने उलटे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। 25 जून की आधी रात से पहले ही पुलिस की गाड़ियां जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई जैसे नेताओं को गिरफ्तार करने निकल पड़ीं। चारों ओर भय, सन्नाटा और अज्ञात अंधकार पसर गया।

भाग 3 यहां पढ़ें

बर्बरता का दौर

मीसा के अंतर्गत देश भर में हजारों लोग बिना किसी मुकदमे या सुनवाई के जेलों में ठूंस दिए गए। मध्यप्रदेश में ही 5620 लोग नजरबंद हुए, 2521 नागरिकों पर देशद्रोह के झूठे आरोप लगे। इन कैदियों के साथ कैसा व्यवहार हुआ, यह सोचकर भी आत्मा कांप उठती है। उन्हें छोटी-छोटी, अंधेरी, सीलन भरी कोठरियों में बंद किया गया, जहां रात में शौच के लिए भी सुविधा नहीं थी। रोटियों पर सड़ चुके कंबल के रेशे चिपक कर परोसे जाते, और इलाज की कोई व्यवस्था नहीं।

भाग 4 यहां पढ़ें

भयावह यातनाएं, अपराजित हौसला

उत्तरप्रदेश के एक कार्यकर्ता को ऐसी स्थिति में डाल दिया गया कि जेल से छूटने के महीनों बाद भी उनके घुटने उनकी ठोड़ी से चिपके रहते थे। गुदा में डंडे डालना, हथेलियों पर भारी कुर्सी रखकर वजन डालना, बर्फ पर लेटाना, 36 घंटे बिना पानी के रखना – ये सब आम यातनाएं थीं। फिर भी इन लोकतंत्र सेनानियों का धैर्य नहीं टूटा। उन्होंने जेल की दीवारों के भीतर भी अपने संकल्प की लौ जलाए रखी।

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जेल के बाहर भूमिगत संघर्ष

सड़कों पर शांत दिखता भारत अंदर ही अंदर सुलग रहा था। भूमिगत कार्यकर्ता रात के अंधेरे में पर्चे बांटते, पोस्टर चिपकाते और अपने नेताओं के संदेश गांव-गांव पहुंचाते। रतलाम, नीमच, इंदौर, भोपाल, सागर जैसे शहरों में अनेक स्वयंसेवक और राष्ट्रवादी नागरिक भूमिगत रहकर काम करते रहे। घरों पर पुलिस के छापे, बच्चों की थालियों में लातें, रात के अंधेरे में बिखेरा गया सामान – ये सब रोजमर्रा की बातें बन चुकी थीं।

वीर नारियों का संघर्ष

राजमाता विजयाराजे सिंधिया, गायत्री देवी, मृणाल गोरे जैसी मातृशक्ति को भी मीसा के तहत जेलों में डाला गया। उन्हें वेश्याओं और मानसिक रोगियों के साथ बंद किया गया, परंतु उनका आत्मबल अडिग रहा। वह अत्याचार सहकर भी हारी नहीं। जयश्री बनर्जी दीदी को चार वर्ष के बच्चे दीपांकर को छोड़कर जेल जाना पड़ा। यह केवल क्रूरता नहीं, मातृत्व की भी अवहेलना थी।

कला, साहित्य और प्रतिरोध

संघर्ष के उस दौर में साहित्य भी हथियार बन गया। हरिभाऊ जोशी की कविता, नागार्जुन की पंक्तियाँ, दिनकर का नारा "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है"—सब कुछ क्रांति की चिंगारी थे। भूमिगत रहते हुए कार्यकर्ताओं ने साइक्लोस्टाइल से पत्र निकाले, पोस्टर छापे, गीत गाए और लोगों को प्रेरित किया। यह विद्रोह विचारों से जन्मा था, हिंसा से नहीं।

आज का सबक

आपातकाल से निकले अनेक नेता आगे चलकर राष्ट्र की राजनीति के शिखर पर पहुंचे—चंद्रशेखर, लालू यादव, शिवराज सिंह चौहान, और न जाने कितने। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इन लोकतंत्र सेनानियों ने हमें यह सिखाया कि लोकतंत्र केवल एक व्यवस्था नहीं, यह आत्मा का स्वर है, जिसे कोई भी कुचल नहीं सकता।

आज जब कुछ नेता प्रधानमंत्री पर तानाशाह होने का आरोप लगाते हैं, उन्हें चाहिए कि पहले 1975 के काले अंधकार को देखें, और सोचें कि असल तानाशाही क्या होती है। आज पत्रकारिता, अभिव्यक्ति और विपक्ष जीवंत है – यह सब उन सेनानियों की देन है जिन्होंने मीसा की यातनाओं के बीच लोकतंत्र की मशाल जलाए रखी।

एक प्रार्थना

इस लेख को लिखते हुए लेखक की कलम भीग गई – स्याही में आंसू घुल गए। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि भारत का संविधान, जिसे बाबा साहेब अंबेडकर ने रचा था, फिर कभी ऐसे काले दिन न देखे।  हम सब उस पीढ़ी के लोकतंत्र सेनानियों को श्रद्धा से नमन करें, जिन्होंने संविधान के लिए अपना सर्वस्व अर्पण किया।

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