“संविधान की हत्या के पचास वर्ष-5 अंधेरा छटा, सूरज खिला…”
साल 1975 की बात है। देश पर स्याह बादल छाए हुए थे। जेलों में बंद लाखों लोग, टूटती उम्मीदें, भय से कांपती आवाज़ें, और हर गली-मोहल्ले में पसरा हुआ मौन। लोकतंत्र का भारत, एक तानाशाह सत्ता की छाया में एक बड़े जेलखाने में तब्दील हो गया था।
लेकिन इस अंधेरे में भी कुछ चिंगारियाँ थीं, जो बुझने से इनकार कर रही थीं। वे फुसफुसा रही थीं – “टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते”।
इन्हीं चिंगारियों में एक थे – विनय, संघ का एक युवा स्वयंसेवक, जो भूमिगत होकर ‘लोक संघर्ष समिति’ के संदेशों को देशभर में फैला रहा था। हर रात वह अपने कंधे पर साइक्लोस्टाइल किए हुए पत्रक ढोता, दीवारों पर नारे लिखता – “तानाशाही मुर्दाबाद!”, “आपातकाल हटाओ!”
विनय अकेला नहीं था। उसके जैसे हजारों लोग देश भर में एक अदृश्य नेटवर्क के रूप में काम कर रहे थे। बंद शाखाएं, बंद अखबारें, बंद न्यायालय – पर विचार नहीं रुके, प्रतिरोध नहीं थमा।
14 नवंबर 1975 को, जब राष्ट्र बच्चों के दिन की तैयारी में था, विनय और उसके साथियों ने सत्याग्रह की तैयारी कर ली। “26 जनवरी तक, हर दिन, हर शहर में हम प्रतिरोध करेंगे” – यह उनका प्रण था।
देश के अलग-अलग हिस्सों में, जैसे उबलता हुआ पानी ढक्कन हटा रहा हो, लोग चौराहों पर आ खड़े हुए। कोई कुछ घंटों में गिरफ्तार हुआ, कोई कुछ मिनटों में। लेकिन इन कुछ पलों ने लोगों को यह समझा दिया – डर को हराया जा सकता है।
दिल्ली में बैठे संजय गांधी के लिए यह सब बर्दाश्त से बाहर था। तुर्कमान गेट पर खून की नदियाँ बहाने के बाद भी, जब प्रतिरोध की लहर थमी नहीं, तब उन्होंने सोचा – "अब संविधान को ही बदल दो।" और बदल दिया गया। लोकसभा का कार्यकाल बढ़ा दिया गया। चुनाव टाल दिए गए। जेलों में और कैदी ठूंस दिए गए।
विनय के जेल में दिन कट रहे थे। उसी येरवडा जेल में जहाँ पांडुरंगपंत क्षीरसागर ने आखिरी सांस ली। बालासाहब देवरस वहीं से सत्याग्रह का संदेश दे रहे थे।
देश थकने लगा था… पर जनता हार मानने को तैयार नहीं थी।
फिर जनवरी 1977 की एक सुबह, जैसे किसी ने सूरज की खिड़की खोल दी हो – इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा कर दी। विनय जेल में था, लेकिन अब उसकी आंखों में चमक थी। "अब जनता बोलेगी," उसने अपने साथी से कहा।
30 जनवरी को रामलीला मैदान में पहली सभा हुई। जिस डर ने लोगों की जुबां सी दी थी, वही अब नारे बन कर गूंज रहा था – “तानाशाही नहीं चलेगी!”
मोरारजी भाई, अटल जी, जगजीवन राम… सब एक मंच पर थे। देश में पहली बार जनता पार्टी की लहर दौड़ रही थी। नारा था – “लोकशाही बनाम तानाशाही।”
और फिर आया 20 मार्च 1977 का दिन – जनता की अदालत का फैसला। इंदिरा हारीं, संजय हारे, कांग्रेस हारी… और लोकतंत्र जीत गया।
विनय अब जेल से बाहर आ चुका था। सुबह की ताजगी में उसने तिरंगे को देखा – आज वह पहले से कहीं अधिक चमक रहा था।
उसने मुस्कराकर कहा –
“अंधेरा छटा… सूरज खिला… लोकतंत्र मुस्कुराया..!”
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