संविधान की हत्या के पचास वर्ष-3 भारत बना एक जेलखाना
संविधान की हत्या के पचास वर्ष / 3
भारत बना एक जेलखाना – वह सुबह जब आज़ादी थम गई
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"26 जून 1975 की सुबह कुछ अजीब थी..."
देश की फिज़ा कुछ बदल गई थी। रात में चुपचाप कुछ ऐसा हो गया था जिससे सूरज जरूर निकला, लेकिन आज़ादी की रौशनी जैसे कहीं गुम हो गई थी। देश स्वतंत्र था, लेकिन उस सुबह के साथ ही आत्मा फिर से गुलाम बन गई थी – और गुलामी भी ऐसी कि खुद अपनी सरकार ने हथकड़ी पहनाई थी।
दिल्ली के 'मदरलैंड' अख़बार के दफ़्तर में जैसे ही प्रिंटिंग प्रेस घनघनाई, पुलिस ने धड़धड़ाकर दरवाज़ा तोड़ा और मशीन को बंद करा दिया। 'ट्रिब्यून' और 'स्वदेश' जैसे अख़बारों की बिजली ही काट दी गई। 'के.आर. मलकानी' को रातोंरात उठा लिया गया। अख़बार स्याही से नहीं, सन्नाटे से छपने लगे।
देश के हर कोने में ख़बरें थीं – लेकिन वो छप नहीं सकती थीं। 'प्रेस सेंसरशिप' का ऐलान हो चुका था। अब कोई भी पंक्ति सरकारी इजाज़त के बिना नहीं छप सकती थी। यह उस अभिव्यक्ति की हत्या थी जिसे कभी बाबासाहेब अंबेडकर ने भारतीय लोकतंत्र की आत्मा कहा था।
डर सिर्फ अख़बारों में नहीं था, सड़कों पर भी था…
इंदिरा गांधी का असली डर था – संघ, युवा आंदोलन, और विचार की आज़ादी से।
उन्हें लगता था, गुजरात और बिहार की क्रांति की जड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है।
और फिर शुरू हुआ क्रूरता का सिलसिला…
26 जून को ही संघ प्रमुख बालासाहब देवरस नागपुर स्टेशन से अपने प्रवास पर निकले थे। पर पहुंचने से पहले ही पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और पुणे के येरवडा जेल में डाल दिया। उसी दिन अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे बड़े नेता भी सलाखों के पीछे पहुंचा दिए गए।
संघ पर आधिकारिक प्रतिबंध तो 4 जुलाई को लगा, लेकिन गिरफ्तारी का खेल पहले ही शुरू हो गया था। हजारों प्रचारक, कार्यकर्ता, और समर्थक या तो गिरफ्तार हो चुके थे या भूमिगत हो गए थे।
‘मिसा’ – यानी MISA – अब मौत बन चुकी थी।
एक ऐसा कानून, जो कहता था:
"ना आरोप, ना वकील, ना दलील – सीधे जेल!"
जेलों में भरे राष्ट्रभक्त, सड़कों पर लाठी ताने पुलिस...
जो भाग गया, उसके घर पर छापा पड़ा। जो छिपा, उसके माता-पिता को पीटा गया।
'संघ का नाम बता दो' – यह पूछते हुए पुलिस ने न जाने कितने मासूम परिवारों को रुलाया।
जेलें भरने लगी थीं।
इंदिरा गांधी के भीतर जो डर और गुस्सा था, वह अब संविधान पर उतरने वाला था।
फैसला – संविधान को ही बदल डालो!
इंदिरा गांधी जानती थीं, सुप्रीम कोर्ट में भी अगर इलाहाबाद हाईकोर्ट जैसा निर्णय आया तो उनकी कुर्सी खतरे में पड़ जाएगी।
तो उन्होंने क्या किया?
कहानी की सबसे खौफनाक मोड़ यहीं आती है:
“अगर संविधान मेरे खिलाफ है, तो उसे बदल दो।”
4 अगस्त 1975 – संसद में 39वां संविधान संशोधन लाया गया।
इसमें कहा गया –
“भ्रष्टाचार करके जीते गए चुनाव को राष्ट्रपति सही मान लें, तो वह वैध हो जाएगा।”
पर इंदिरा को इससे संतोष नहीं था…
वो चाहती थीं – पूरी छूट, संपूर्ण माफी।
इसलिए 7 अगस्त को 40वां संशोधन संसद में आ गया –
जिसमें यह साफ कर दिया गया कि प्रधानमंत्री के चुनाव को कोई अदालत नहीं छू सकती!
एक घंटे में राज्यसभा में पारित, अगले दिन राष्ट्रपति की मंजूरी, और बस…
अब प्रधानमंत्री पर कोई मुकदमा नहीं चलेगा – चाहे वो संविधान तोड़ें या देश।
इसीलिए यह सब इतनी तेजी से हुआ –
क्योंकि 11 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई थी।
प्रश्न उठता है – यह सब क्या लोकतंत्र था?
क्या इसे ‘चालाकी’ कहा जाए?
क्या इसे ‘कानून का खेल’ माना जाए?
या क्या इसे ‘संविधान के साथ बलात्कार’ कहना ठीक होगा?
जो संविधान डॉ. अंबेडकर ने बड़ी मेहनत से गढ़ा था, उसकी आत्मा को कांग्रेस सरकार ने अपने बूटों से कुचल दिया था।
स्वतंत्र भारत की सबसे भयावह रातें शुरू हो चुकी थीं।
और अंत में…
यह केवल अतीत नहीं है। यह चेतावनी है –
“लोकतंत्र की रक्षा केवल संविधान से नहीं होती, उसके प्रति जनता की जागरूकता से होती है।”
1975 की वह काली सुबह आज भी सिखाती है कि संविधान की हत्या एक दिन में नहीं होती, वह होती है — धीरे-धीरे, चुपचाप, नियमों की आड़ में…
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