संविधान की हत्या के पचास वर्ष भाग-4 "टूट सकते हैं मगर हम…"
प्रस्तावना:
1975 की बरसात बहुत कुछ बहाकर ले गई थी — लोकतंत्र, नैतिकता, और बोलने की आज़ादी। अगस्त आते-आते देश की फिज़ा कुछ और ही कहानियाँ बुनने लगी थी। एक नया राज बना था — जिसमें सत्ता केवल एक परिवार की थी, और भय उसका सबसे बड़ा शस्त्र।
दिल्ली की वो सुबह
राजधानी की सड़कों पर चहल-पहल थी, लेकिन लोगों के चेहरों पर छाया डर कुछ और ही कह रहा था। संसद भवन के भीतर संविधान की धज्जियाँ उड़ रही थीं, और बाहर बुलडोज़र तैयार खड़े थे। देश का नक्शा बदलने चला था एक युवक — जिसके हाथ में सत्ता नहीं, पर सत्ता से भी ज़्यादा कुछ था — डर का साम्राज्य।
वो युवक कोई मंत्री नहीं था। सांसद भी नहीं। पर प्रधानमंत्री का बेटा था — संजय गांधी।
कोर्ट की लड़ाई और बुलडोज़र की धमक
7 अप्रैल 1976 का दिन था। दिल्ली हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के चुनाव हुए थे। सबको लग रहा था कि संजय गांधी के समर्थक डी. डी. चावला की जीत पक्की है। मगर नतीजे ने तूफान खड़ा कर दिया।
प्राणनाथ लेखी जीत गए — वही, जो अभी-अभी तिहाड़ जेल से छूटे थे, संघ से जुड़े एक तेजस्वी वकील।
संजय गांधी ने गुस्से में काँपते हुए सिर्फ एक शब्द कहा:
“सब मिटा दो…”
दूसरे ही दिन कोर्ट के आसपास के वकीलों के दफ्तरों पर बुलडोज़र चला दिए गए। हज़ार से ज़्यादा ऑफिस ज़मींदोज़। वकील दौड़े, चीखे, पर पुलिस ने लाठियों से जवाब दिया।
43 वरिष्ठ अधिवक्ता जब इस अत्याचार के विरोध में मुख्य न्यायाधीश को ज्ञापन देने निकले, उन्हें बस से उतार कर गिरफ्तार कर लिया गया।
भाग 2 यहां पढ़ें
24 को MISA में, 19 को NSA में डाला गया।
दिल्ली में अब कानून खुद डर के पीछे भाग रहा था।
तुर्कमान गेट: जहां आंसुओं से भी स्याही नहीं निकली
13 अप्रैल 1976 — बैसाखी का दिन था। लेकिन नई दिल्ली के तुर्कमान गेट पर भय और त्रासदी का रंग चढ़ चुका था। संजय गांधी ने आदेश दिया था — “पुरानी दिल्ली को साफ करना है, सुंदर बनाना है।”
बुलडोज़र तैयार थे।
16 अप्रैल को कुछ बुज़ुर्गों ने मंत्री एच.के.एल भगत से गुहार लगाई — “हमें मत उजाड़िए।”
मंत्री ने मुस्कुराकर आश्वासन दिया — “घबराइए मत।”
19 अप्रैल की सुबह जब लोग चाय पी रहे थे, अचानक बुलडोज़र घरों की दीवारें चीरते हुए अंदर घुसे। और पुलिस, लाठी और आंसू गैस लेकर भीड़ पर टूट पड़ी।
पर जनता डरी नहीं। सैकड़ों महिलाएं, पुरुष, बच्चे सड़कों पर अड़ गए।
किंतु उसी समय, पास के होटल रणजीत की चौथी मंज़िल पर बैठा संजय गांधी, दूरबीन से यह दृश्य देख रहा था। और वॉकी-टॉकी पर बस एक आदेश दिया —
“फायर करो।”
उस एक आदेश ने जो तबाही मचाई, वो जलियांवाला बाग के बाद सबसे क्रूर सरकारी हमला था।
14 बुलडोज़र, 1000 से ज्यादा घर तबाह, 150 से अधिक मौतें, और पूरा इलाका अगले 45 दिन कर्फ्यू में रहा।
संजय गांधी की सत्ता अब चुनाव की नहीं, खून की गवाही चाहती थी।
नसबंदी का आतंक: शरीर का नहीं, आत्मा का घाव
देश को 'सुंदर' बनाने के बाद अब बारी थी उसे 'संयमित' करने की।
संजय गांधी ने नसबंदी अभियान चलाया।
लोगों को पकड़-पकड़ कर नसबंदी की जा रही थी। बसों से, मेलों से, काम पर जाते लोगों को उठाया जाता और जबरन ऑपरेशन कर दिया जाता।
किसी को सूचित नहीं किया जाता, न ही उनकी स्वीकृति ली जाती।
उत्तर प्रदेश के नारकादि गांव में लोगों ने विरोध किया — जवाब में पुलिस ने गोलियां चलाईं।
13 मौतें हुईं। पास के एक और गांव में 25 लोगों को मार दिया गया।
देश का हर गांव, हर कस्बा, हर शहर अब डर के साये में जी रहा था।
तिहाड़ जेल: राजमाताओं की कोठरी
ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया और जयपुर की महारानी गायत्री देवी — दो राजवंशों की सम्मानित स्त्रियाँ — दिल्ली की तिहाड़ जेल की एक सड़ी हुई कोठरी में रखी गईं।
साथ में थीं वेश्याएं, चोर, और अपराधी महिलाएं — ताकि इन दोनों का मानसिक संतुलन बिगाड़ा जा सके।
यह वह दौर था जब विरोध करना मतलब आत्मा को निचोड़ देने जैसा था।
अंतिम किरण: अटल जी की कविता
बेंगलुरु की जेल में बैठे अटल बिहारी वाजपेयी ने एक दिन एक कविता की पंक्ति लिखी —
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
✍️ – अटल बिहारी वाजपेयी
सत्य का संघर्ष सत्ता से,
न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है,
किरण अंतिम अस्त होती है।
दीप निष्ठा का लिए निष्कंप,
वज्र टूटे या उठे भूकंप,
यह बराबर का नहीं है युद्ध,
हम निहत्थे, विरोधी है सन्नद्ध।
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज,
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज,
किंतु फिर भी जूझने का प्रण,
पुनः अंगद ने बढ़ाया चरण।
प्राण–पण से करेंगे प्रतिकार,
समर्पण की मांग अस्वीकार,
दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते।
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते..!
यह कविता आत्मबल और लोकतंत्र की विजय का प्रतीक बनी।
आज भी जब भारत की लोकतांत्रिक चेतना पर संकट आता है, यह कविता उसी ऊर्जा से प्रेरणा देती है।
कविता भूमिगत साइक्लोस्टाइल पर्चों के ज़रिए पूरे देश में फैल गई।
यह कोई कविता नहीं थी, यह उस दौर के लाखों कैदियों और दबे-घुटे नागरिकों के हृदय की पुकार थी।
उपसंहार:
संजय गांधी का कोई सरकारी पद नहीं था, फिर भी वह देश के हर नागरिक की सांस पर बैठा था।
वो बुलडोज़र चला सकता था, गोली चलवा सकता था, संविधान बदलवा सकता था।
मगर लाख जुल्मों के बाद भी, हजारों कार्यकर्ता थे जो झुके नहीं।
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
— यह केवल एक कविता नहीं, आपातकाल के अंधकार में एक दीपक बन गई।
(क्रमशः)
भाग 5 में पढ़ें – जनता का संघर्ष, इमरजेंसी का अंत और लोकतंत्र की वापसी की कहानी…
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