धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज: सनातन धर्म और राष्ट्रचेतना के अप्रतिम संत
धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज: सनातन धर्म और राष्ट्रचेतना के अप्रतिम संत
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सनातन धर्म के प्रकांड विद्वान, गौ-रक्षा आंदोलन के प्रणेता और ‘रामराज्य परिषद’ के संस्थापक, धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज का जीवन भारतीय संस्कृति, धर्म और राष्ट्र के उत्थान के लिए समर्पित था। 7 फरवरी 1982 को वाराणसी के केदारघाट पर जल समाधि लेने वाले इस महापुरुष की स्मृति न केवल संत समाज बल्कि भारत के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास में भी अमिट है।
प्रारंभिक जीवन और संन्यास
स्वामी करपात्री जी महाराज का जन्म 11 अगस्त 1907 (संवत 1964, श्रावण शुक्ल द्वितीया) को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के भटनी गांव में हुआ था। उनका बचपन का नाम हरि नारायण ओझा था। उनके पिता रामनिधि ओझा एक वैदिक विद्वान थे और माता शिवरानी देवी धार्मिक संस्कारों से पूर्ण थीं।
बाल्यकाल से ही उनके भीतर गूढ़ ज्ञान और वैराग्य की प्रवृत्ति थी। विवाह के उपरांत भी उनका मन सांसारिक जीवन में नहीं रमा और 16 वर्ष की आयु में उन्होंने गृह त्याग कर दिया। सत्य की खोज में वे ज्योतिर्मठ पहुँचे और वहाँ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी से दीक्षा ली। इस दौरान उन्होंने गहन शास्त्र अध्ययन किया और संस्कृत, व्याकरण, न्याय, वेदांत और भागवत में अद्वितीय विद्वत्ता प्राप्त की। उनके स्मरण की विलक्षण क्षमता थी, वे एक बार पढ़ लेने के बाद वर्षों बाद भी पुस्तक और पृष्ठ संख्या तक बता सकते थे।
संन्यास के पश्चात वे "हरिहरानंद सरस्वती" कहलाए। उनके तपस्वी जीवन और कठोर साधना के कारण लोग उन्हें "करपात्री" कहने लगे, क्योंकि वे केवल उतना ही भोजन ग्रहण करते थे, जितना हाथ में आ सके।
धर्म और राष्ट्र जागरण में भूमिका
स्वामी करपात्री जी न केवल एक संत थे, बल्कि राष्ट्रप्रेमी और धर्मरक्षक भी थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने संत समाज को संगठित कर सक्रिय भागीदारी निभाई, जिसके कारण वे गिरफ्तार भी हुए। परंतु इस आंदोलन के दौरान उन्हें यह अनुभव हुआ कि राजनीति में नैतिकता और राष्ट्रभाव का अभाव बढ़ रहा है। इसके समाधान हेतु उन्होंने समाज में धर्म और राष्ट्रचेतना जगाने का संकल्प लिया।
उन्होंने दो प्रमुख संस्थाओं की स्थापना की—
- अखिल भारतीय धर्मसंघ (1940) – जिसका उद्देश्य संपूर्ण समाज में धर्म और सनातन संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना था।
- रामराज्य परिषद (1948) – यह एक राजनीतिक दल था, जिसने 1952 के लोकसभा चुनाव में तीन सीटें जीतीं और 1957 व 1962 के विधानसभा चुनावों में भी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई। उनका उद्देश्य राजनीति में शुचिता और सनातन मूल्यों की पुनर्स्थापना करना था।
गौ-रक्षा आंदोलन और संतों का बलिदान
स्वामी करपात्री जी महाराज का सबसे प्रसिद्ध आंदोलन गौ-रक्षा से जुड़ा हुआ था। वे चाहते थे कि भारत में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। इसके लिए उन्होंने देशभर में यात्राएं कीं और सरकारों से आग्रह किया।
7 नवंबर 1966 को, जब संतों ने गौहत्या पर प्रतिबंध की मांग को लेकर संसद भवन के समक्ष धरना दिया, तब पुलिस ने लाठीचार्ज और गोलीबारी कर दी, जिसमें कई संतों का बलिदान हुआ। इस अमानवीय घटना से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने इस्तीफा दे दिया। इस आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर दिया और रामचंद्र वीर जी ने 166 दिनों तक अनशन किया, जो विश्व इतिहास में सबसे लंबा अनशन था।
लेखन और साहित्यिक योगदान
स्वामी करपात्री जी केवल आंदोलनकारी और संत नहीं थे, बल्कि एक महान विचारक और लेखक भी थे। उनके प्रमुख ग्रंथ हैं:
- वेदार्थ पारिजात – वेदों की मीमांसा पर आधारित अद्भुत ग्रंथ
- रामायण मीमांसा – रामायण की आध्यात्मिक व्याख्या
- विचार पीयूष – दार्शनिक और धार्मिक विचारों का संग्रह
- मार्क्सवाद और रामराज्य – भारतीय राजनीति और समाज व्यवस्था पर गंभीर विवेचन
उत्तराधिकारी और विरासत
स्वामी करपात्री जी महाराज के शिष्य, पुरी पीठ के वर्तमान शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती, आज भी उनके विचारों को आगे बढ़ा रहे हैं।
उनका जीवन और कार्य आज भी उन सभी के लिए प्रेरणा है, जो धर्म, राष्ट्र और समाज के कल्याण के लिए समर्पित हैं। धर्म की जय, अधर्म का नाश, प्राणियों में सद्भावना और विश्व का कल्याण – यह उद्घोष आज भी उनके द्वारा चलाए गए आंदोलन की अमर ध्वनि है।
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