श्रावणी उपाकर्म और रक्षा बंधन: परंपरा, पवित्रता और प्रेम की अनंत डोर
श्रावणी उपाकर्म और रक्षा बंधन: परंपरा, पवित्रता और प्रेम की अनंत डोर
बारिश की पहली बूँदें जब सूखी धरती पर गिरीं, तो मिट्टी की सौंधी खुशबू पूरे गाँव में फैल गई, मानो धरती अपनी प्यास बुझाकर गहरी साँस ले रही हो। आसमान में घने बादल थे, लेकिन उनके बीच से झाँकती सूरज की हल्की किरणें मंदिर के कलश पर सुनहरी आभा बिखेर रही थीं। चारों ओर चहल-पहल थी—कहीं यज्ञ की तैयारी, कहीं रंग-बिरंगी राखियों की सजावट। यह वही दिन था जब श्रावणी उपाकर्म और रक्षा बंधन का पावन संगम होता है।
श्रावणी का तात्पर्य केवल नयी पुस्तक खोलने से नहीं, बल्कि मन, वचन और कर्म की शुद्धि से है। “स्वाध्यायान्मा प्रमदः” का उच्चारण बार-बार होता रहा—जीवन में पढ़ाई और प्रवचन से प्रमाद नहीं करना, यही निर्देश घर-घर गूंज रहा था। सुबह-सवेरे गुरु के साथ हेमाद्रि स्नान का संकल्प लिया गया; गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गौमूत्र से स्नान कर वह शुद्धि योग आरंभ हुई, फिर ऋषि-पूजन, सूर्योपस्थान और यज्ञोपवीत पूजन से पुराना यज्ञोपवीत उतारकर नया धारण किया गया। बच्चों के चेहरे पर वह गर्व था जो दूसरा जन्म पाने पर महसूस होता है—यज्ञोपवीत सिर्फ धागा नहीं, आत्म संयम का संकल्प था।
गाँव के प्राचीन पीपल के पेड़ के नीचे गुरुजी अपने शिष्यों के साथ बैठे थे। उनके सामने गोदुग्ध, दही, घी, कुशा घास और यज्ञोपवीत की पोटलियाँ सजी थीं। गुरुजी ने गंभीर स्वर में कहा— "बेटा, उपाकर्म सिर्फ धागा बदलने की रस्म नहीं, यह आत्मशुद्धि और नए संकल्प का दिन है। जैसे बारिश धरती को धो देती है, वैसे ही यह संस्कार मन, वाणी और कर्म को शुद्ध करता है।"
एक छोटा बच्चा, अर्जुन, नए यज्ञोपवीत को हाथ में लिए बैठा था। उसकी आँखों में गर्व की चमक थी, लेकिन मन में हल्का-सा डर—"क्या मैं इस पवित्र धागे की गरिमा रख पाऊँगा?" गुरुजी ने उसकी शंका पढ़ ली। मुस्कुराते हुए बोले— "पुत्र, यह धागा तुम्हें बाँधने के लिए नहीं, तुम्हें याद दिलाने के लिए है कि तुमने वचन दिया है—सत्य बोलने का, दूसरों की निंदा न करने का, और अपने ज्ञान को बढ़ाने का।"
यज्ञ की अग्नि में घी डालते ही सुगंध हवा में फैल गई। मंत्रों की गूंज, बच्चों के हँसी-ठहाकों के साथ मिलकर एक अद्भुत वातावरण बना रही थी। कुशा घास की ठंडी लेकिन नुकीली छुअन, और दही-जौ से बने प्रसाद का मीठा-खट्टा स्वाद—सब मिलकर इस दिन को विशेष बना रहे थे।
उसी शाम जब अग्नि की लपटें ऊँची उठीं और ग्रामवासियों ने वेद-ऋचाओं की मधुर ध्वनि में मुखरित होकर आहुति दी, बड़ा दुखभरा लेकिन गर्वीला किस्सा बुजुर्गों में से किसी ने सुनाया। “याद है,” उन्होंने कहा, “वामन कथा—जब वामन अवतार आए और असुरराज बलि की भक्ति ने देवताओं को चुनौती दी—वह कथा वही है जहाँ रक्षा का अर्थ सबसे गहरा रूप में प्रकट हुआ।” और जैसे ही वह कथा शुरू हुई, बच्चों की आँखों में कल्पना के सुंदर दृश्य बनने लगे: वामन का ब्राह्मण रूप, बलि का विशाल हृदय, और वह क्षण जब बलि ने स्वयं अपना सर्वस्व दे दिया। पर वृद्ध बोले, “बस इतना ही नहीं—कथा का दूसरा भाग है जो रक्षाबंधन की आत्मा बताता है। जब विष्णु ने पाताल का मार्ग लिया, लक्ष्मीजी अपमानित और खोई हुई सी थीं। उन्होंने ब्राह्मण का वेश धरकर उस अनजाने राजा के चरण छूकर राखी बांधी, और बलि ने बंधुता का वचन देकर अपने धर्म का पालन किया। यही राखी का भाव है—रक्षा, समर्पण और बदलते हुए वैराग्य में भी मानवीय रिश्ता।”
कथा सुनते-सुनते उन बच्चों के लिए वह दिन केवल एक अनुष्ठान का दिन नहीं रहा; उन्होंने समझा कि जब हम उपाकर्म में प्रायश्चित्त करते हैं, तो वही शक्ति हमें बाहर की दुनिया की चुनौतियों से भी जोड़ती है। उसी रात गाँव की चौपाल में एक और प्रसंग जुड़ गया—इंद्राणी की वह कथा, जिसने देवता इंद्र को धैर्य और विजय का विश्वास लौटाया। युद्धभूमि में थके इंद्र को जब इंद्राणी ने मंत्रोच्चारित रेशमी धागा बाँधकर कहा—“यह धागा मात्र धागा नहीं, यह विश्वास है”—तो उसने पुनः शक्ति पायी और देवताओं ने विजय प्राप्त की। वृद्ध ने कहा, “ये दोनों प्रसंग हमें बताते हैं कि रक्षा का अर्थ केवल रक्षा नहीं, यह विश्वास देना है, शक्ति लौटाना है, और कभी-कभी अपनी रक्षा से बढ़कर दूसरों की गरिमा बनाये रखना है।”
अगले दिन, जब बहनें राखी बाँधने की तैयारी कर रही थीं, तो उन माँओं ने बच्चों से कहा कि राखी सिर्फ भाई-बहन का प्यारा खेल नहीं; इसका इतिहास वेद और पुराण से जुड़ा हुआ है। एक बेटी ने पूछा, “क्या हमें भी अपने भाइयों के लिए वही संकल्प लेना चाहिए जो यज्ञोपवीत का धागा देने वालों ने लिया था?” माँ ने मुस्कुराकर कहा, “बिलकुल—रक्षा का संकल्प सिर्फ एक दिन का नहीं, वह पूरे वर्ष और पूरे जीवन का होना चाहिए। जब तुम्हारा भाई तुम्हें राखी बांधकर वचन देता है, तो वह केवल प्रतिज्ञा नहीं करता; वह अपने आचरण से उस रक्षा को सिद्ध करे—तभी वह सच्ची रक्षा होगी।”
रक्षा बंधन और श्रावणी का संगम
गाँव में इस दिन एक ही आंगन में दो अनुष्ठान हो रहे थे—एक ओर यज्ञोपवीत धारण करने वाले बच्चे, दूसरी ओर बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बाँध रही थीं। हँसी, गीत, मंत्र, और प्रसाद की खुशबू मिलकर एक उत्सव का रंग बिखेर रहे थे।
एक बुजुर्ग बाबा, जो दोनों अनुष्ठानों में सम्मिलित थे, मुस्कुराकर बोले— "देखो बेटा, धागा चाहे यज्ञोपवीत हो या राखी, दोनों का काम एक ही है—स्मरण दिलाना कि हमें अपने वचनों और रिश्तों की गरिमा बनाए रखनी है। "उन्होंने कहा, “जब कभी समाज संकट में होता है, तब रक्षाबंधन का धागा केवल कलाई तक सीमित नहीं रहता; वह राज्य, समाज और संस्कृति की रक्षा तक पहुँच जाता है।” कुछ युवा सैनिकों के परिवारों की आँखों में आंसू चमकने लगे जब किसी ने याद दिलाया कि सीमा पर तैनात हर जवान ने भी अनेक बहनों की रक्षा का वचन लिया होता है—वह वचन कभी शपथ में बदलता है, कभी कार्य में, और हमेशा समर्पण में।
श्रावणी उपाकर्म और रक्षाबंधन के मिलन-क्षण का यही सार है—मन का शोधन और सामाजिक प्रतिज्ञा। उपाकर्म में जो प्रायश्चित्त होते हैं, वे किसी भी रिश्ते को नया अर्थ देते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने पुराने पापों का संकल्प लेता है और नया यज्ञोपवीत धारण करता है, तब वह न केवल अपने लिए बल्कि समाज के लिए भी नया भरोसा बनाता है। उसी तरह, जब राखी बांधी जाती है, वह केवल व्यक्तिगत सुरक्षा का वादा नहीं, वह समाज में औचित्य और न्याय की रक्षा का सूत्र भी बांधती है। यह रक्षा धर्म और संस्कार दोनों को जीवन में बनाए रखने की लीला है।
गाँव के स्कूल में शिक्षक ने नन्हे बच्चों को समझाया कि उपाकर्म के दिन जो स्वाध्याय आरंभ होता है, वह केवल शास्त्रों का अध्ययन नहीं है—यह चरित्र और संस्कार का अध्ययन है। पौराणिक कथाएँ इसीलिए बोली जाती हैं ताकि बच्चे समझें कि लक्ष्मीजी द्वारा बलि को राखी बाँधना, इंद्राणी द्वारा इंद्र की कलाई पर धागा बाँधना, और राजमहलों की नीतियाँ—सभी में वही भावना है: संकट में साथ देना। और यही भावना आज भी सीमाओं, पीड़ित बहनों तथा समाज के कमजोर वर्गों के साथ हमारे व्यवहार में दिखनी चाहिए। यदि हम हर श्रावणी पर छोटे-छोटे यज्ञ करते हुए स्वयं को शुद्ध नहीं करेंगे, तो हमारा रक्षा-संकल्प केवल शब्द बन कर रह जाएगा।
जैसे-जैसे दिन ढलता गया, गाँव का एक युवा जो सीमा पर सेवा कर चुका था, उसने कहा, “हमारे जवानों के लिए भी यही उपाकर्म और रक्षाबंधन का अर्थ है। वे अपने जीवन को समाज की रक्षा के लिए दान करते हैं। हम जब राखी बाँधते हैं तो उन्हें दोगुना हौसला देते हैं।” उसकी बातों ने सबको झकझोर दिया—कई लोगों ने उस शाम गाँव के वृद्धालय और सैनिक परिवारों की मदद का संकल्प लिया। उपाकर्म का पवित्र धागा अब कर्म में बदलने लगा—किसी ने निर्णय लिया कि वह गाँव के विद्यालय में पुस्तक देने का संकल्प लेगा, तो किसी ने वृद्धों के खाने-पीने की जिम्मेदारी उठाई। यह वही भाव था जिसका प्राचीन काल में वेद-ऋषियों ने अनुग्रह किया था—ज्ञान, रक्षा और सेवा का त्रय।
रात के अंत में, जब पवित्र चाँद अपनी पूर्ण चमक दिखा रहा था और राखियाँ खुशियों की डोर बनकर कलाईयों पर बंध रही थीं, तो गाँव वाले समझ गए कि श्रावणी उपाकर्म और रक्षाबंधन का मेल केवल रस्मों का संगम नहीं, बल्कि जीवन-नीति का मिलन है। जहाँ उपाकर्म हमें अपने भीतर झांकने, पाप-प्रायश्चित्त करने और स्वाध्याय का संकल्प लेने को कहता है, वहीं रक्षाबंधन उस संकल्प को सामाजिक रूप देने की प्रेरणा देता है—भाई के रूप में देश, बहन के रूप में संस्कृति, और गुरु के रूप में परंपरा। यही वह धागा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आया है—कभी लक्ष्मीजी के हाथों बँधा, कभी इंद्राणी के मंत्रों से आकार हुआ, और आज हमारी छोटी-सी कलाईयों पर अपनी शक्ति दिखा रहा है।
मैंने देखा कि पुराना यज्ञोपवीत नया होकर भी वही ध्येय लिए खड़ा था—स्वाध्याय, प्रायश्चित्त और रक्षा। और जब गाँव के लोग अगली सुबह मंदिर की सीढ़ियों पर खड़े होकर मिले, तो किसी ने कहा, “यह राखी जो हमने बाँधी है, वह अपने आप में एक प्रतिज्ञा है—हम अपने घर तक ही नहीं, अपनी संस्कृति, अपनी सीमाओं और अपनी बहनों तक पहुँचेंगे।” इस प्रतिज्ञा के साथ वे घर लौटे, मन में वही वेद-श्लोक गूँजते हुए—स्वाध्यायान्मा प्रमदः—और साथ ही वह मौन संकल्प कि रक्षा बंधन का अर्थ हर दिन साकार होगा।
✍️ मनमोहन पुरोहित, प्राचार्य 📞 7023078881
आलेख सामाजिक-आर्थिक, देशभक्ति, कर्तव्यों की जिम्मेदारी निर्वाह करने का दायित्व बोध करता है
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