वीर दुर्गादास राठौड़: स्वाभिमान की अंतिम सांस तक

वीर दुर्गादास राठौड़: स्वाभिमान की अंतिम सांस तक


मारवाड़ की तपती रेत पर सूरज डूब रहा था। लालिमा से भरा आसमान मानो आने वाले संघर्ष का संकेत दे रहा था। दूर कहीं घोड़े की टापों की आवाज गूंज रही थी — यह आवाज थी उस योद्धा की, जिसका नाम आने वाली सदियों तक स्वाभिमान और निष्ठा के प्रतीक के रूप में लिया जाएगा — वीर दुर्गादास राठौड़

जन्म और बचपन

13 अगस्त 1638। मारवाड़ के प्रतिष्ठित मंत्री आसकरण राठौड़ के घर एक ऐसे बालक का जन्म हुआ, जिसकी आंखों में बचपन से ही वीरता की चमक थी। बाल दुर्गादास तलवार के वार और घोड़े की लगाम, दोनों में समान दक्षता दिखाते थे। उनकी दृष्टि दूर तक देख सकती थी — केवल रणभूमि ही नहीं, राजनीति के गहरे षड्यंत्र भी।

औरंगज़ेब का षड्यंत्र

महाराजा जसवंत सिंह के निधन के बाद दिल्ली का बादशाह औरंगज़ेब अपने साम्राज्य को और फैलाने के लिए लालायित था। उसने नन्हें उत्तराधिकारी अजीत सिंह और उनकी माता जादम को दिल्ली बुलाकर कैद कर लिया। मंसूबा साफ था — अजीत सिंह को इस्लाम कबूल करवाना और मारवाड़ को मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बना लेना

लेकिन दिल्ली की गलियों में एक छाया घूम रही थी — दुर्गादास। उसने बादशाह की हर चाल भांप ली। और एक रात, जब मुग़ल पहरेदार सबसे अधिक निश्चिंत थे, दुर्गादास ने चुपचाप कैद से अजीत सिंह और उनकी माता को निकाल लिया। यह पल मात्र भागने का नहीं, बल्कि पूरे मारवाड़ के पुनर्जन्म का था।

20 वर्षों का संघर्ष

अब आरंभ हुआ एक ऐसा युद्ध जो बीस वर्षों तक चला — तलवार से, रणनीति से, और धैर्य से। दुर्गादास के पास न तो मुग़लों जैसी विशाल सेना थी, न ही उनके खजाने जैसी दौलत, लेकिन उनके पास था जनता का विश्वास और अटूट निष्ठा
उन्होंने पहाड़ियों में छापामार युद्ध किए, रेगिस्तान में दुश्मन को भटकाया, और हर बार जब मुग़ल सेना ने उन्हें घेरने की कोशिश की, वे मानो रेत के बीच की हवा बनकर गायब हो जाते।

निर्णायक क्षण

1707 — औरंगज़ेब की मृत्यु। मुग़ल साम्राज्य में गुटबाजी शुरू हो चुकी थी। दुर्गादास ने इस मौके को पहचाना और अजीत सिंह के साथ मारवाड़ में अंतिम निर्णायक युद्ध छेड़ दिया। घोड़ों की टापों और तलवारों की टकराहट के बीच, दुर्गादास ने वह कर दिखाया जो असंभव लगता था — मुग़लों को मारवाड़ से बाहर खदेड़ दिया गया

त्याग और अंत

पर कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई। अजीत सिंह के राजा बनने के बाद दरबारी षड्यंत्रों ने उनकी सोच को विषाक्त कर दिया। जो दुर्गादास ने जीवनभर रक्षा की, वही सिंहासन अब उनके प्रति संदेह से भर गया।
दुर्गादास ने एक बार भी शिकायत नहीं की। उन्होंने मोह त्याग दिया, संन्यास लिया और अपना शेष जीवन धार्मिक सेवा में लगा दिया।
22 नवंबर 1718 — यह वह दिन था जब राजस्थान ने अपना सबसे निष्ठावान पुत्र खो दिया।

विरासत

दुर्गादास राठौड़ केवल तलवार के धनी नहीं थे, वे रणनीति, धैर्य और नैतिकता के प्रतीक थे। उनका जीवन बताता है कि देश और धर्म की रक्षा केवल रणभूमि में ही नहीं, बल्कि षड्यंत्रों और कठिनाइयों में भी की जाती है
आज भी जोधपुर की हवा में जब घोड़े की टापों की आवाज सुनाई देती है, लोग कहते हैं —
"यह दुर्गादास लौट आए हैं, अपने मारवाड़ की रखवाली करने।"


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