हल्दी घाटी युद्ध विजय@450 वर्ष : अडिग प्रतिज्ञा, अजेय प्रताप
हल्दी घाटी युद्ध में अकबर की सेना संख्या में महाराणा प्रताप की सेना से चार गुना अधिक थी। मुगल सेना में मान सिंह सहित कई सेनापति थे, फिर भी वे महाराणा प्रताप के आगे टिक न सके और मैदान छोड़कर भाग गए।
आज से 450 वर्ष पूर्व 18 जून, 1576 को हल्दी घाटी में अकबर की साम्राज्यवादी सेना और महाराणा प्रताप का आमना-सामना हुआ था। इस युद्ध में मुगल सेना बुरी तरह पराजित हुई। युद्ध में प्रताप और मानसिंह का भी आमना-सामना हुआ था, पर प्रताप के भाले के वार से वह बच गया। इसके बाद मान सिंह व मुगल सेना भाग खड़ी हुई और गोगुंदा के किले में छिप गई। इस पराजय पर क्रोधित अकबर ने अपने प्रधान सेनापति मानसिंह व उसके सहयोगी आसफ खान की ड्योढ़ी माफ कर 6 माह के लिए दरबार से निष्कासित कर दिया था। महत्वपूर्ण बात यह है कि अकबर की सेना में मान सिंह के अलावा कई सेनापति थे।
घोड़े सहित बहलोल खां के दो फाड़
हल्दीघाटी युद्ध से पहले अकबर ने महाराणा प्रताप को अपनी अधीनता स्वीकार कराने के लिए कूटनीतिक सहित सारे प्रयास किए। महाराणा प्रताप का शत्रु बोध स्पष्ट था। वे कभी अकबर के साथ अपने आत्मसम्मान का समझौता नहीं कर सकते थे। इसके पीछे स्वाभिमान से प्रेरित उनका व्यक्तित्व एवं अपने पूर्वजों की मर्यादा भी थी। इसलिए प्रताप पर दबाव बनाने के लिए चार बार अपने सेनापतियों को भेजने के बावजूद (देखें ‘आक्रांता से संधि कैसी’, पृष्ठ 16-17), अकबर अपने मंसूबों में सफल नहीं हुआ। इसके बाद उसने मान सिंह के नेतृत्व में सेना भेजी, जिसका सामना महाराणा प्रताप की सेना से हल्दी घाटी में हुआ। उस युद्ध में शुरू से अंत तक प्रताप की सेना हावी रही। प्रताप ने अकबर के एक सेनापति बहलोल खां को घोड़े सहित दो फाड़ कर दिया था। मुगलों का सैन्य बल प्रताप की सेना के मुकाबले चार गुना था, फिर भी अकबर की सेना जान बचाकर कई किलोमीटर पीछे मोलेला तक भाग खड़ी हुई, वह भी प्रताप के आक्रमण के पहले चरण में। युद्ध में मुगल सेना शुरू से अंत तक भय के साये में रही।
युद्ध को अपनी आंखों से देखने वाले इतिहासकार, सैनिक, लेखक और अकबर को जाकर प्रत्यक्ष वर्णन करने वाले बंदायूनी ने लिखा है कि युद्ध के आरंभ में ही दृश्य यह बन गया था कि प्रताप के हरावल (सेना के अग्र भाग) का नेतृत्व करने वाले सेनापति हकीम खां सूरी ने इतना इतना भीषण आक्रमण किया कि मुगल सेना सात किलोमीटर पीछे तक मुगल शिविर और टेरोकोटा के लिए प्रसिद्ध मोलेला गांव तक भाग गई। तब मुगल सेना को वापस बुलाने के लिए सेना के अंत में तैनात सेनापति मिहतर खां ने यह अफवाह फैलाई कि अकबर स्वयं विशाल सेना लेकर युद्ध भूमि में आ गए हैं। तब जाकर भागती मुगल सेना का हौसला थोड़ा लौटा और उनके कदम रुक गए।
ऐसी थी मुगलों की व्यूह रचना
अकबर का मान सिंह पर पूरा विश्वास भी नहीं था। इस भागने वाली मुगल सेना के अग्र भाग में 85 रेखाओं वाले एक मजबूत सैन्य दल को रखा गया था, जिसका नेतृत्व बरहा का सैय्यद हाशिम कर रहा था। उसके बाद मोहरे के तौर पर जगन्नाथ कछवाह के नेतृत्व में कच्छवा राजपूतों कच्छवा राजपूतों की विशाल सेना तथा उसके पूरक के तौर पर बख्शी अली आसफ खां के नेतृत्व में मध्य एशियाई मुगलों को रखा गया था।
इसके अतिरिक्त माधो सिंह कछवाह के नेतृत्व में एक बड़ा अग्रिम रिजर्व दल भी था। स्वयं मान सिंह केंद्र में हाथी पर सवार था। मुगल सेना की कमान बदख्शां के मुल्ला काजी खान (जो बाद में गाजी खां के नाम से जाना गया। जिहाद के लिए हिंदुओं का कत्ल करने वालों को गाजी’ की उपाधि दी जाती रही है।) दात्री और सांभर के राव लोनकर ने संभाला रखी थी। इसमें फतेहपुर सीकरी के शेखजादे, सलीम चिश्ती के रिश्तेदार शामिल थे। मुगल सेना का सबसे मजबूत घटक निर्णायक दक्षिण पार्श्व में तैनात था, जहां बरहा के सैयद थे। अंत में मुख्य सेना के पीछे मिहतर खां के नेतृत्व में मजबूत पहरा था।
हल्दी घाटी नाम क्यों पड़ा?
नाथद्वारा से करीब 16 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। गोगुन्दा और खमनोर की पहाड़ी श्रेणियों के मध्य यह इतनी संकरी घाटी थी कि दो आदमी भी इसमें साथ-साथ नहीं चल सकते थे। एक घोड़े को भी इसे पार करने में दिक्कत आती थी। यहां की मिट्टी के रंग हल्दी की तरह पीला होने के कारण इस स्थान को हल्दी घाटी कहा गया।
इसलिए नाम पड़ा रक्त तलाई
प्रताप की सेना के आक्रमण का वेग इतना तीव्र था कि मुगल सैनिक जान बचा कर बनास के दूसरे किनारे से 10-15 किमी दूर तक भाग खड़े हुए। युद्ध में इतना रक्तपात हुआ कि सारा क्षेत्र रक्तमय हो गया। इसलिए इस स्थान को रक्त तलाई के नाम से भी जाना जाता है।
मान सिंह जान बचाकर भागा
युद्ध के मध्य का दृश्य यह था कि प्रताप अपने घोड़े चेतक पर अकेले ही कई सेनानायकों वाली विशाल मुगल सेना के बीच घुस गए। विश्व की सर्वाधिक बलशाली और विशाल सेना का नेतृत्व करने वाले मुगल सेनापति मान सिंह के हाथी के मस्तक पर चेतक ने अपने दोनों पांव टिका दिए। प्रताप ने मान सिंह पर भाले का प्रबल वार किया, लेकिन वह महावत के पीछे होदे में छिप गया। महावत मारा गया। प्रताप महावत के साथ मान सिंह को भी मरा हुआ समझकर घायल चेतक को युद्ध भूमि से बाहर ले आए।
मान सिंह भाग कर गोगुंदा के महलों में छिप गया था। वह प्रताप से इतना डरा हुआ था कि उसने गोगुंदा किले के चारों ओर गहरी खाई खुदवा ली। ऊपर से प्रताप ने मुगलों के रसद मार्ग को काट दिया था।
अकबर की सेना में इतना साहस भी नहीं बचा था कि वह गोगुंदा के किले से निकल कर खाने-पीने की सामग्री की व्यवस्था कर सके। खाद्य सामग्री के अभाव में मुगल सैनिक उन घोड़ों को मार कर खाते रहे, जिनके सवार युद्ध में मारे जा चुके थे। इसका असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ रहा था। कच्चे आम खाने से भी कई मुगल बीमार हो गए थे। युद्ध के बाद चार माह तक मुगल सेना वहां कैदियों की तरह रही। बाद में जब मान सिंह अकबर के पास जा रहा था, तो रास्ते में लोग उसे हेय दृष्टि से देख रहे थे। अपनी विशाल सेना अपनी विशाल सेना के नेतृत्वकर्ता मान सिंह के युद्ध न करने और मैदान छोड़कर भागने पर अकबर बहुत क्रोधित था। उसने मान सिंह की ड्योढ़ी माफ कर दी।
अकबर के हमले
अपनी अधीनता स्वीकार न कर प्रताप के स्वतंत्र बने रहने और हल्दी घाटी युद्ध में मिली शर्मनाक पराजय से अकबर पूरी तरह बौखला चुका था। 1577 से 1582 के बीच उसने सेनापति बदल-बदल कर मेवाड़ पर कई आक्रमण किए। उसने प्रतिवर्ष 60,000 से एक लाख तक सैनिक भेजे। एक बार तो वह स्वयं एक लाख सैन्य बल के साथ मेवाड़ की ओर गया और बांसवाड़ा के आसपास के क्षेत्र में बना रहा। लेकिन मेवाड़ पर मुगलों को विजय नहीं मिल पाई। हल्दी घाटी युद्ध के बाद अक्तूबर 1576 में अकबर ने उदयपुर का नाम मुहम्मदाबाद करने का प्रयास किया। उसने इस नाम से सोने-चांदी के सिक्के भी जारी किए थे।
अंततः 1583 की विजयादशमी को प्रताप ने दिवेर में मुगल सेना पर निर्णायक आक्रमण करके मुगलों को बुरी तरह पराजित किया और उसे मेवाड़ से स्थाई रूप से खदेड़ दिया। सभी 36 थानों से मुगल सैनिक भाग खड़े हुए। इस युद्ध में अमर सिंह ने मुगल सेनापति पर भाले से इतना जोरदार प्रहार किया कि उसे भेदते हुए भाला जमीन में धंस गया। दिवेर युद्ध में 36,000 की मुगल सेना ने प्रताप और अमर सिंह के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। यह एक कीर्तिमान था। प्रताप के इस आक्रमण का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह ने किया था। दिवेर की हार के बाद प्रताप के जीवन काल में अकबर ने कभी मेवाड़ पर आक्रमण का साहस नहीं किया।
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