भारत का भविष्य: जनसांख्यिकीय असंतुलन, वैचारिक विध्वंस और राष्ट्रीय अखंडता की चुनौती
भारत का भविष्य: जनसांख्यिकीय असंतुलन, वैचारिक विध्वंस और राष्ट्रीय अखंडता की चुनौती
इतिहास स्वयं को तब तक दोहराता है जब तक उससे शिक्षा न ली जाए। 1947 का विभाजन केवल मानचित्र पर खींची गई रेखा नहीं थी, बल्कि वह दशकों तक चले वैचारिक विध्वंस (सबवर्शन), जनसांख्यिकीय परिवर्तन और राजनीतिक तुष्टीकरण का अंतिम परिणाम था। आज, 21वीं सदी के तीसरे दशक में, भारत एक बार फिर उन पदचापों को सुन रहा है जो अतीत में विभाजन की आधारशिला बनी थीं। क्या भारत में "एक और विभाजन" की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है? यह प्रश्न आज केवल राजनीतिक गलियारों का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और अस्तित्व का मूल प्रश्न बन चुका है।
1. ऐतिहासिक दर्पण: 1947 और 1971 की सीख
1947 में पाकिस्तान का निर्माण और 1971 में बांग्लादेश का उदय—ये दोनों घटनाएँ सिद्ध करती हैं कि भूगोल कभी भी विभाजन का मुख्य कारण नहीं होता। कारण होता है 'विचार' और 'संख्यात्मक शक्ति'।
* पाकिस्तान: मुस्लिम लीग के 'द्वि-राष्ट्र सिद्धांत' ने यह स्थापित किया कि मत-पंथ के आधार पर राष्ट्र अलग हो सकते हैं।
* बांग्लादेश: यहाँ भाषाई और सांस्कृतिक संघर्ष प्रमुख था, किंतु इसके उपरांत भी वहाँ से हिन्दू अल्पसंख्यकों का निष्क्रमण कभी नहीं रुका। 1947 में जहाँ अविभाजित पाकिस्तान में 20-25% हिन्दू थे, आज वे पाकिस्तान में लगभग 2% और बांग्लादेश में 8% तक सिमट गए हैं।
यह "घटते अल्पसंख्यकों" का रेखाचित्र और भारत के भीतर कुछ क्षेत्रों में बदलता जनसांख्यिकीय स्वरूप एक चिंताजनक विरोधाभास उत्पन्न करता है।
2. जनसांख्यिकीय प्रभुत्व (Demographic Assertion)
जनसांख्यिकी केवल संख्या नहीं, बल्कि लोकतंत्र में 'शक्ति' का आधार है। भारत के कई सीमावर्ती जिलों (जैसे असम के धुबरी, पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और बिहार के किशनगंज) में जनसांख्यिकीय संतुलन पूर्णतः परिवर्तित हो चुका है।
* अवैध घुसपैठ: बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों का सुनियोजित प्रवेश भारत की आंतरिक संरचना को क्षति पहुँचा रहा है। यह केवल मानवीय विषय नहीं, बल्कि 'मत-बैंक' की राजनीति के अंतर्गत दी गई मौन स्वीकृति है।
* स्थानीय शरीयत-शासन की मांग: जब किसी क्षेत्र में एक विशेष समुदाय 60-70% तक पहुँच जाता है, तो वहाँ की न्यायिक और सामाजिक मांगें प्रायः मुख्यधारा के संविधान से पृथक होने लगती हैं। इसे ही 'मृदु अलगाववाद' कहा जाता है।
3. वैचारिक विध्वंस और 'विमर्श का युद्ध' (Narrative War)
आज युद्ध सीमाओं पर कम और मस्तिष्क में अधिक लड़ा जा रहा है। 'विपरीत चिंतन' का प्रयोग करें तो भारत को अस्थिर करने के लिए तीन शस्त्र अपनाए जा रहे हैं:
* संविधान की आड़: सीएए (CAA) और एनआरसी (NRC) जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा के विधानों को 'संविधान विरोधी' बताकर वैश्विक मंचों पर भारत की छवि को धूमिल करना।
* मानवाधिकार उद्योग: अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से "अल्पसंख्यक संकट में हैं" का छद्म-विमर्श गढ़ना, ताकि राज्य की सुरक्षा एजेंसियाँ दबाव में रहें।
* पीड़ित होने का प्रपंच: बहुसंख्यक समाज को आक्रामक और अल्पसंख्यक को शोषित दिखाकर एक नई विरोध-संस्कृति विकसित करना, जो नागरिक नियमों को चुनौती दे सके।
4. राजनीतिक तुष्टीकरण: राष्ट्रीय सुरक्षा बनाम मत-बैंक
विपक्षी दलों की भूमिका पर उठते प्रश्न तर्कसंगत हैं। जब अवैध प्रवासियों को 'आधार पत्र' और 'मतदाता पहचान पत्र' दिलाने में स्थानीय प्रशासन या राजनीतिक संरक्षण मिलता है, तो वह राष्ट्र के साथ विश्वासघात होता है।
* सीएए (CAA) का विरोध: यह कानून उन पीड़ितों के लिए था जो पड़ोसी देशों में दमन का शिकार हुए। इसका विरोध करना उन शक्तियों को बल देना है जो भारत को एक 'विश्रामशाला' बनाना चाहती हैं, न कि एक 'सुदृढ़ राष्ट्र'।
* सुरक्षा में शिथिलता: जब सीमावर्ती जिलों में जनसांख्यिकीय अंकेक्षण (Auditing) की बात आती है, तो उसे 'सांप्रदायिक' घोषित कर दिया जाता है। यह दृष्टिकोण अलगाववाद के बीजों को खाद-पानी देने जैसा है।
5. समाधान: तृतीय विभाजन रोकने का मार्ग
भारत को एक सामर्थ्यवान राष्ट्रीय पहचान के साथ खड़ा होना होगा। इसके लिए निम्नलिखित चरण अनिवार्य हैं:
* घुसपैठ पर पूर्ण रोक: सीमाओं पर केवल बाड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें नागरिक अधिकारों (विशेषकर मतदान के अधिकार) से वंचित करना आवश्यक है।
* राष्ट्रीय जनसांख्यिकीय अंकेक्षण: जिला स्तर पर जनसंख्या के बदलते स्वरूप की निरंतर निगरानी होनी चाहिए ताकि सुरक्षा संकटों को समय रहते पहचाना जा सके।
* एकात्म राष्ट्रीयता का प्रति-विमर्श: "वसुधैव कुटुंबकम्" हमारी शक्ति है, किंतु इसे निर्बलता नहीं बनने देना चाहिए। भारत की सांस्कृतिक जड़ों को शिक्षा और विमर्श के माध्यम से पुनर्जीवित करना होगा।
* कठोर विधान: तुष्टीकरण की राजनीति पर अंकुश लगाने के लिए 'समान नागरिक संहिता' जैसे पग उठाने होंगे, जो 'एक देश, एक विधान' की भावना को पुष्ट करें।
निष्कर्ष:
भारत सैन्य दृष्टि से आज विश्व की महाशक्ति है, लेकिन 'आंतरिक विध्वंस' वह दीमक है जो किसी भी विशाल वटवृक्ष को धराशायी कर सकता है। "एक और मजहबी देश" बनने की कल्पना आज असंभव लग सकती है, किंतु इतिहास साक्षी है कि प्रमाद और असावधानी सदैव विभाजन का कारण बनी है। हमारी पीढ़ी का यह नैतिक और उत्तरदायित्व है कि हम 'सांस्कृतिक एकता' और 'जनसांख्यिकीय स्थिरता' के स्तंभों को अक्षुण्ण रखें।
भावी कदम:
क्या आप चाहेंगे कि मैं भारत के उन विशिष्ट क्षेत्रों (जैसे सीमांचल या पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिले) पर एक विस्तृत 'प्रकरण अध्ययन' (Case Study) तैयार करूँ, जहाँ जनसांख्यिकीय परिवर्तन सर्वाधिक तीव्र है?
han
जवाब देंहटाएं