हल्दीघाटी का सूर
हल्दीघाटी का सूर!
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उस दिन प्राची की गोदी से,
हँसता दिनकर निकला था,
उदयांचल की ओर-छोर ने,
भीषण लावा उगला था,(१)
हर कोना मेवाड़ धरा का,
मन ही मन था हर्षाया ,
केसरिया रंग उजली आभा,
से पंकज था मुस्काया,(२)
चहक उठे थे विहग देखकर,
मृदुल रश्मियाँ दिनकर की,
मानों बिन मांगे ही पूरी,
अभिलाषा होती मन की,(३)
महक रही थी गिरि घाटियाँ,
सौरभ से भरकर सारी,
रणवीरों के रक्त खेल की,
थी घाटी में तैयारी,(४)
समरभूमि में रणबाजा सुन,
रणचंड़ी मन हर्षायी,
पीने को अरिवक्ष रुधिर को,
कर खप्पर ले मुस्कायी,(५)
रक्त प्यास ले भैरव ने भी,
सिंह नाद अट्हास किया,
मुगल रक्त को चाट चाट कर,
शत्रु का उपहास किया।(६)
कृष्ण पखेरु नील गगन में,
खुशियों से भर मड़राते,
और सियार,भेड़िये,पेचक,
रणभेरी सुन इतराते,(७)
हल्दीघाटी की माटी से,
नील गगन हो पीत उठा,
रण खेलारो के पगतल से
उड़ती रज छा गई घटा,(८)
चमक रही वीरों की छवियाँ,
वीर प्रसूता रज कण में,
होड़ लगी थी वीर सुतों में,
माँ को शीश समर्पण में,(९)
बाँध शीश केसरिया बाना,
कमरबंद्ध तलवार चढ़ा,
एक हाथ में भाला बरछी,
दूजे कर में ढाल मढ़ा,(१०)
किसी हाथ में तीर शरासन,
किसी हाथ में था भाला,
किसी हाथ बाँरूद फूकँनी,
चला वीर रण मतवाला,(११)
चेतक के दृढ़ पृष्ठ भाग पर,
ले भाला राणा बैठे,
एकलिंग के जयकारों से,
अवनि अम्बर दहल उठे,(१२)
चेतक के चंचल पैरों में,
जरा नहीं थी स्थिरता,
समरभूमि में निज नायक को,
ले जाने की उत्सुकता,(१३)
प्रश्न उठा वह वीर कौन जो,
अग्र पंक्ति वाहक होगा?
कौन हरावल सैनिक दल का,
मेवाड़ी नायक होगा?(१४)
होड़ मच गई रणबाँकुरे,
आगे बढ़ बढ़ कर आते,
एकलिंग जयघोष साथ में,
अपना नाम बता जाते,(१५)
हर कोई उन्माद भरा था,
नेत्र उगलते थे ज्वाला,
काँप उठे भुजदंड़ जोश से,
पीकर शोणित की हाला,(१६)
सब पर राणा को आशा थी,
सब राणा के विश्वासे
राणा के एक ईशारे पर,
दे प्राण,रक्त के प्यासे ,(१७)
सब बाद वीर अफगान बढ़ा,
राणा को शीश झुकाया,
वीरोचित कर्म समर्पित हो,
नरकेहरी आगे आया,(१८)
पौरुष से तन आभासित था,
आँखों से रक्त टपकता,
उन्मुक्त भाल सुदृढ़ कंध,
दिनकर सा आग उगलता,(१९)
अरिवक्ष रक्त का वह प्यासा
वह मुगल हिन्दू नायक था,
वह तो राणा की तरकस का,
विश्वास भरा सायक था,(२१)
राणा के आगे शीश झुका,
वह बोला वीर पठानी,
दिल्ली का तख्त़ मिटा दूगां,
अकबर मांगेगा पानी,(२१)
विश्वास करो मुझ पर राणा,
कुल काण नहीं तोड़ूगा,
हूँ वंशज मैं सूरी कुल का,
रण पीठ नहीं मोड़ूगा।(२२)
दे दो राणा,दे दो राणा,
दो भार हरावल दल का,
रणचंड़ी को अरि भेट करूँ,
पौरुष गूंजे भूज बल का,(२३)
उस वीर पठानी को देखा,
मेवाड़ धरा निहाल हुई,
राणा की आँखे झलक पड़ी,
हीरा पा मालामाल हुई,(२४)
राणा प्रताप ने आगे बढ़,
सूरी का कंधा थपकाया,
रजपूती सेना नायक बन
हकीम खान मन हर्षाया।(२५)
राणा प्रताप ने निज कर से,
शिरस्त्राण सूर को पहनाया,
दे हाथ खड़्ग गल विजयमाल,
सेनानायक कह अपनाया,(२६)
आबद्ध किया निज बाँहों में,
मुख तेज ओज से भर आया,
कह उठा वीर अफगान सूर,
माँ सेवा का अवसर आया,(२७)
चाहे सूरज निज आन तजे,
पश्चिम दिश अब उदयांचल हो,
चाहे धरती निज काण तजे,
नतमस्तक चाहे हिमांचल हो,(२८)
चंदा शीतलता तज जाए
भर उठे तेज अंगारों से,
चाहे अग्नि निज धर्म तजे,
बुझ जाए पवन की लहरों से,(२९)
ये अंतरिक्ष का ओर छोर,
अपनी मर्यादा तज जाए,
चाहे शेषनाग तज भार धरा,
सागर,सरिता जा मिल जाए,(३०)
ओ राणा जी! प्रण आज करूँ,
रण बीच पीठ ना मोडू़गा,
जब तक तन मेरे प्राण रहे,
तलवार नहीं मैं छोड़ूगा,(३१)
लू शीश काट दू शीश चढ़ा,
मेवाड़ धरा के चरणों में,
अरि शोणित से अभिषेक करूँ,
विध्वंस मचा दूगां रण में,(३२)
मेवाड़ पताका निर्भय हो,
लहराये आडावल चोटी,
रण बीच काट मैं बाटूँगा,
बैरी तन की बोटी बोटी,(३३)
जय एकलिंग मेवाड़ धरा
जय तुलजा वीर भवानी की,
जय महाराणा प्रताप वीर,
जय रणचंड़ी महारानी की,(३४)
आह्वान किया रणचंड़ी का,
बढ़ चला वीर समरांगण में,
मन में भर अभिलाषा भारी,
कुछ कौतुभ करूँ आज रण में,(३५)
बैरी को लूगाँ आज घेर,
कुछ ऐसा खेल दिखाऊँगा,
इतिहास रखेगा सदा याद,
दिल्ली का तख्त़ हिलाऊँगा,(३६)
ये रण साधारण खेल नही,
शस्त्रों के पासे चलते हैं,
बैरी का रक्त चखे गोटी,
रण चौसर खाने भरते है,(३७)
यहाँ दीप नही जलते चौखट,
ये होली खेल अनोखा है,
न उड़ती सौरभ फूलों की,
शोणित का रंग अनोखा है,(३८)
खा घाव नही रोती काया,
कर अट्हास इठलाती है,
रक्तिम स्याही तलवार डूबा,
इतिहास नया लिख जाती है,(३९)
अपने वीरों में जोश जगा,
आ गया वीर रण नाकें पर,
बिजली सी चंचलता उर में,
भैरव छाया रण बांके पर,(४०)
देखा घाटी के दूर छोर,
मुगलों ने ढेरे डाले थे,
हरावल मुखिया जगन्नाथ,
आसिफ,माधो भी माले थे,(४१)
मुल्ला काजी खां,सैयद खां,
सीकरी का शेख बढ़ा आगे,
था मान सिंह मुख्य नायक,
गज हौदे पर शोभित सागे,(४२)
मेवाड़ी वीर वाहिनी में,
महावीर सुभट इतराते थे,
सामन्त भीम,राठौड़ राम,
तोमर सुत संग इठलाते थे,(४३)
राणा का मंत्री भामाशाह,
निज सुत तारा संग आया था,
इतिहास पृष्ठ उजला करने,
झाला ने अश्व सजाया था(४४)
आमेर सिंह ने सोचा था,
राणा पग बैड़ी बाधूँगा,
गर सफल नहीं यह चाल हुई,
मस्तिष्क राणा का काटूँगा,(४५)
हो गया रक्त का खेल शुरूँ,
तड़ तड़ तलवारें तड़क उठी,
शोणित के निर्झर बह निकले,
रणचंड़ी रण में चहक उठी,(४६)
असिधार व्याल सी लहराई,
बरछी ने धूम मचाई थी,
भाले से भाले टकराये,
रणभेरी नभ तक छाई थी,(४७)
गज पर घोड़े घोड़े पर गज,
चढ़ चढ़ भीषण टकराते थे,
हय पग की लात लगे गज को,
गज मुर्छित हो गिर जाते थे,(४८)
तलवारें नागिन सी लहरे,
कटि म्यान शांत न रहती थी,
भीली वीरों के तीर चले,
बैरी सेना कब सहती थी?(४९)
रण में भीषण कोहराम मचा,
कुछ रूंड गिरे कुछ मुंड गिरे,
कट कट कर ढेर लगे रण में,
हय तुंड गिरे गज झुंड गिरे,(५०)
हो रही भयानक मार काट,
सब वीर रक्त के प्यासे थे,
पट गया महीतल लाशों से,
कहीं मामा कहीं नवासे थे,(५१)
हकीम सूर तलवार लिए,
ललकार बढ़ा आगे आया,
विकराल गर्जना सुन अरिदल,
पीछे हट भागा घबराया,(५२)
मानों भेड़ों के झुंड बीच,
केहरी ने दांव लगाये हो,
दुर्गम गिरि घाटी में छिप कर,
भेड़ों ने प्राण बचाये हो,(५३)
आगया मुगलियाँ लूणकरण,
अफगान सूर को छलने को,
खा घाव चला उल्टे पग ही,
मरहम न मिला फिर भरने को,(५४)
राणा को घाव लगा भारी,
झाला ने सिर शिरस्त्राण धरा,
इतिहास अमर हो गया वीर,
मेवाड़ आन हित वीर मरा,(५५)
पर वीर हकीम डटा आगे,
बैरी से लोहा लेने को,
जो काम छोड़ कर गये मान,
उसको पूरा कर देने को,(५६)
रख प्राण हथेली पर सूरा,
मुगलों के आगे कूद गया,
अरि दल में था कोहराम मचा,
पर एक वार वह चूक गया,(५७)
बैरी की असि का वार लगा,
गिर पड़ा शीश माँ चरणों में,
तलवार रही कर गिरी नहीं,
धड़ झूम रहा समरांगण में,(५८)
विकराल रूप अफगान वीर,
रणखेत रहा निज आन बढ़ा
हो गया अस्त दिनकर नभ में,
अफगान वीर माँ शीश चढ़ा,(५९)
जब तक इतिहास पृष्ठ उजला,
अफगान वीर तू उऋण रहे,
यह मातृ भूमि तेरे ऋण की,
हे वीर सदा ही ऋणी रहे,(६०)
तलवार तजी न निज कर से,
तलवार साथ ही दफनाया,
ये एक अकेला इस्लामी,
हिन्दुवाणा सूरा कहलाया।(६१)
(हेमराज सिंह'हेम'कोटा कोटा राजस्थान मौलिक)
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