मालेगांव केस: न्याय की प्रतीक्षा से विजयी सत्य तक


✍️ मनमोहन पुरोहित

🔷 प्रस्तावना:

29 सितंबर 2008 को मालेगांव के भीखू चौक पर हुए बम विस्फोट ने न केवल निर्दोष नागरिकों की जान ली, बल्कि देश की सुरक्षा एजेंसियों की भूमिका, राजनीतिक स्वार्थों और मीडिया की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए। इस घटना के 16 वर्षों बाद 2024 में NIA विशेष अदालत ने इस मामले में सभी आरोपितों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। यह निर्णय न केवल न्याय की पुनर्स्थापना है, बल्कि उन वर्षों की पीड़ा और सामाजिक लांछनों का जवाब भी, जो निर्दोषों पर थोपा गया।


⚖️ न्यायालय का निर्णय: आरोपों की पुष्टि नहीं

विशेष NIA न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोप सिद्ध करने में असफल रहा। जिस बाइक को साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर से जोड़ा गया, उसकी नंबर प्लेट जाली पाई गई और इंजन-चेचिस नंबरों को मिटा दिया गया था। कर्नल प्रसाद पुरोहित पर कश्मीर से आरडीएक्स लाकर बम बनाने का आरोप लगाया गया, लेकिन इसका कोई भौतिक प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया जा सका। सुधाकर चतुर्वेदी के घर विस्फोटक मिलने की बात की गई, लेकिन यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि उसे वहाँ किसने रखा। साक्ष्य के अभाव ने अदालत को यह फैसला सुनाने को विवश किया कि "संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।"

🔸 सैफ्रन टेरर का मिथक और उसका राजनीतिक उपयोग

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने फैसले के बाद सार्वजनिक रूप से कहा कि “सैफ्रन टेरर” शब्द गढ़कर हिंदू संगठनों को बदनाम करने का सुनियोजित प्रयास किया गया। यह केवल कानून का दुरुपयोग नहीं था, बल्कि हिंदू आस्था और राष्ट्रवादी संगठनों के विरुद्ध मनोवैज्ञानिक युद्ध था।


🛑 कैसे गढ़ा गया एक झूठा नैरेटिव?

2006 के मालेगांव विस्फोट, 2007 की समझौता एक्सप्रेस त्रासदी, हैदराबाद की मक्का मस्जिद धमाका—इन सभी मामलों में पहले आईएसआई और सिमी जैसे संगठनों की संलिप्तता पाई गई थी। लेकिन बाद में इनकी जांच दिशा बदलकर कुछ चुनिंदा व्यक्तियों और संगठनों पर केंद्रित की गई।
यह वही समय था जब मीडिया, कुछ बुद्धिजीवी और एनजीओ — सब एक स्वर में “भगवा आतंकवाद” शब्द को उछाल रहे थे।

🧷 अमानवीय यातना और ‘नहीं टूटने’ का जज़्बा


साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने अपने बयान में कहा था कि उन्हें मानसिक और शारीरिक यातना दी गई।

कर्नल पुरोहित को वर्षों तक जेल में रहना पड़ा, लेकिन उन्होंने सैन्य गरिमा नहीं छोड़ी।

स्वर्गीय हेमंत करकरे की भूमिका पर भी सवाल उठे, जब दिग्विजय सिंह के साथ उनकी बातचीत की रिकॉर्डिंग सामने आई।

पूर्व ATS अधिकारी मेहबूब मोहव्वर ने बताया कि उनसे संघ प्रमुख को फंसाने का दबाव डाला गया था, और मना करने पर प्रताड़ित किया गया।

इन सबके बावजूद आरोपित न झुके, न टूटे

🔥 “हिंदू आतंकवाद” — एक मीडिया मिथक


  • समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट में पाकिस्तान के आतंकियों की संलिप्तता के प्रमाण थे, फिर भी ‘हिंदू संगठनों’ को दोषी ठहराया गया।

  • मक्का मस्जिद विस्फोट में असली आरोपी पकड़े गए थे, फिर भी दिशा बदल दी गई।

  • मुंबई 26/11 हमले के समय “RSS साजिश” पुस्तक का विमोचन — राजनीतिक चुप्पी नहीं, प्रत्यक्ष समर्थन था।


🚨 अब क्या?

इन चारों मामलों में कोई दोषी सिद्ध नहीं हुआ, जबकि असली अपराधी शायद अब भी खुले घूम रहे हैं। क्या अब उन अधिकारियों, राजनीतिज्ञों और पत्रकारों की जवाबदेही तय की जाएगी, जिन्होंने वर्षों तक न्याय प्रक्रिया को मोड़ा, झूठ फैलाया और निर्दोषों की ज़िंदगी तबाह की?

🕉️ हिंदू समाज के लिए क्या संदेश?

इस फैसले ने स्पष्ट किया है कि सहिष्णुता, संयम और सत्य पर विश्वास ही अंततः विजय दिलाता है। यह हिंदू समाज के लिए आत्मगौरव का क्षण है — नफरत की राजनीति पर न्याय और धैर्य की जीत।

🔚 निष्कर्ष

मालेगांव कांड के निर्णय ने न्यायिक व्यवस्था में विश्वास तो बढ़ाया, लेकिन यह भी याद दिलाया कि राजनीति और प्रशासनिक षड्यंत्र जब मिल जाते हैं, तो न्याय कितनी देर से आता है। अब ज़रूरत है — सत्य के शत्रुओं को पहचानकर, उनके विरुद्ध लोकतांत्रिक और वैधानिक लड़ाई लड़ने की।


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