उत्तरकाशी: भोलेनाथ का तांडव या विकास की त्रासदी?


भोलेनाथ का तांडव या विकास की त्रासदी?

उत्तराखंड में आपदा बनाम अंधा विकास
- मनमोहन पुरोहित
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

उत्तरकाशी की त्रासदी
धरती पर देवों की भूमि कही जाने वाली उत्तराखंड एक बार फिर प्रलय की चपेट में है। उत्तरकाशी जिले के धराली और खीर गंगा घाटी में बादल फटने और तेलगाड़ नाले में अचानक आई बाढ़ ने जो तबाही मचाई, वह दिल दहला देने वाली है। धराली गांव में 50 से अधिक घर, 30 होटल और 30 होमस्टे मलबे में तब्दील हो गए। 10 मीटर चौड़ी खीरगंगा नदी का प्रवाह 39 मीटर तक फैल गया और रास्ते में जो भी आया, उसे निगलती चली गई। प्रशासन भले ही केवल 4 मौतों और 100 से अधिक लोगों के लापता होने की बात कह रहा हो, लेकिन जमीनी तस्वीर इससे कहीं अधिक भयावह प्रतीत होती है।


क्या यह भोलेनाथ का क्रोध है?
2013 में केदारनाथ में आई प्रलयंकारी आपदा से लेकर आज तक उत्तराखंड एक के बाद एक आपदाओं से जूझ रहा है। यह मानना आसान है कि यह भोलेनाथ का प्रतीकात्मक "तांडव" है, लेकिन असल में यह हमारे विकास मॉडल की असफलता और प्रकृति से छेड़छाड़ का प्रत्यक्ष परिणाम है।

राज्य निर्माण के साथ शुरू हुई लूट
उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग कर 9 नवम्बर 2000 को राज्य का दर्जा दिया गया। लेकिन इसका गठन जिन उद्देश्यों के साथ हुआ था—जैसे पलायन रोकना, स्थानीय रोजगार सृजन, संसाधनों का संरक्षण—वह हाशिए पर चला गया। इसके स्थान पर सत्ता, नौकरशाही और उद्योगपतियों का गठजोड़ सामने आया, जिसने देवभूमि की प्राकृतिक संपदाओं की खुली लूट शुरू कर दी।


बेतरतीब निर्माण और अंधाधुंध परियोजनाएं
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों, सुरंगों, जलविद्युत परियोजनाओं और रेलवे पथों के नाम पर विस्फोटकों से पर्वतों को छलनी किया गया। नदियों और झीलों में मलबा डंप किया गया, जिससे उनकी जलग्रहण क्षमता नष्ट हो गई। नतीजा यह हुआ कि जब भी तेज बारिश होती है, नदियां तुरंत उफान पर आकर तबाही मचाने लगती हैं।

बादल फटना: केवल प्राकृतिक घटना नहीं
बादल फटना भले ही एक अप्रत्याशित प्राकृतिक घटना हो, लेकिन इसका बढ़ता पैमाना और बारंबारता इस बात की चेतावनी है कि पर्यावरणीय असंतुलन अब हिमालय को असहनीय हो चला है। वैज्ञानिक मानते हैं कि एक घंटे में 10 सेंटीमीटर या उससे अधिक वर्षा को बादल फटने की श्रेणी में रखा जाता है। इन घटनाओं का पूर्वानुमान तक नहीं लगाया जा सकता।


विकास बनाम विनाश
उत्तराखंड में विकास का अर्थ बन गया है—धार्मिक पर्यटन, होटल उद्योग और बिजली परियोजनाएं। परिणामस्वरूप नदियों के किनारे होटल, होमस्टे और व्यावसायिक इमारतों की भरमार हो गई। खेती, जल संरक्षण, जैव विविधता और गांवों का टिकाऊ विकास पूरी तरह उपेक्षित रहा। 5 हजार गांव आज भी सड़क और परिवहन सुविधा से वंचित हैं।

पलायन और पिछड़ापन
राज्य गठन के 25 वर्षों बाद भी पलायन रुका नहीं। बल्कि जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार पौड़ी-गढ़वाल और अल्मोड़ा जैसे जिलों की आबादी घट गई। इसका अर्थ है कि न रोजगार आया, न विकास। जो आया, वह था विनाश की आहट।

आखिर कब चेतेंगे हम?
प्राकृतिक आपदाएं जब आती हैं तो वह तथाकथित आधुनिक विकास को भी अपनी धारा में बहा ले जाती हैं। लेकिन असली चुनौती आपदा के बाद खड़ी होती है—आवास, रोजगार, पुनर्वास, मानसिक आघात और सामाजिक विस्थापन। उत्तरकाशी की त्रासदी इस चुनौती का ताजा उदाहरण है।

निष्कर्ष
उत्तराखंड का संकट केवल एक राज्य का संकट नहीं, यह पूरे देश के विकास मॉडल पर पुनर्विचार का अवसर है। अगर हमने अब भी चेतकर पर्यावरण-संवेदी और संतुलित विकास की राह नहीं अपनाई, तो भोलेनाथ का यह "तांडव" बार-बार दोहराया जाएगा—शायद और अधिक उग्रता के साथ।


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

नियति के क्रूर प्रहार के बीच मानवता की एक छोटी सी कोशिश

16 दिसंबर 1971: भारत का विजय दिवस कैसे तेरह दिन में टूट गया पाकिस्तान

संगम के जल पर भ्रम और वैज्ञानिक सच्चाई