राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: हिन्दू समाज और राष्ट्र जागरण का महा अभियान
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: हिन्दू समाज और राष्ट्र जागरण का महा अभियान
परिचय
विजयदशमी 2025 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे करेगा। यह एक ऐसा संगठन है, जो न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा, बल्कि अपने मूल लक्ष्य और कार्यशैली को अक्षुण्ण रखते हुए विश्व का सबसे विशाल संगठन बन गया। मनमोहन पुरोहित के शब्दों में, “हिन्दू समाज जीवन की विषमताओं के बीच राष्ट्र जागरण का महा अभियान” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की कहानी है। यह ब्लॉग संघ के गठन की पृष्ठभूमि, इसके उद्देश्यों, और उस समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालता है, जिन्होंने इस संगठन को जन्म दिया।
संघ की स्थापना की पृष्ठभूमि: एक ऐतिहासिक संदर्भ
संसार में कोई भी विचार, व्यक्ति, या संगठन अकस्मात जन्म नहीं लेता। प्रकृति की लंबी प्रक्रिया और सामाजिक परिस्थितियाँ इसके लिए आधार तैयार करती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन भी ऐसी ही एक प्रक्रिया का परिणाम था। 1925 में, जब संघ की स्थापना हुई, भारत एक कठिन दौर से गुजर रहा था। अंग्रेजी शासन की कुटिल नीतियाँ, हिन्दू समाज में फैला भय और विखराव, और सनातन संस्कृति को नष्ट करने के षड्यंत्र चारों ओर व्याप्त थे।
712 ई. में मोहम्मद बिन कासिम के सिंध पर आक्रमण के साथ शुरू हुआ सांस्कृतिक और धार्मिक रूपांतरण का अभियान, सल्तनत काल और फिर अंग्रेजी शासन में और तीव्र हो गया। अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत हिन्दू समाज को जाति के आधार पर बाँटने का प्रयास किया। भारतीय सामाजिक व्यवस्था, जो कभी गुण और कर्म पर आधारित थी, विदेशी दमन और कुचक्रों के कारण खंडित हो गई। अंग्रेजों ने न केवल सामाजिक विभाजन को बढ़ावा दिया, बल्कि हिन्दू समाज के गौरव प्रतीकों को विवादास्पद बनाकर और हमलावरों को आदर्श चित्रित कर समाज में भ्रम और संघर्ष पैदा किया।
इसके साथ ही, चर्च ने भी हिन्दुओं के मानसिक और सामाजिक परिवर्तन का अभियान चलाया। परिणामस्वरूप, हिन्दू समाज में भय, विखराव, और आत्मग्लानि का भाव बढ़ता गया। इस विषम परिस्थिति में हिन्दू समाज का शांतिपूर्ण जीवन जीना भी कठिन हो गया था।
राष्ट्रीय चेतना का क्षय और स्वतंत्रता संग्राम
19वीं और 20वीं सदी के प्रारंभ में भारत में स्वतंत्रता संग्राम जोर पकड़ रहा था। क्रांतिकारी आंदोलनों, बलिदानों, और अहिंसक आंदोलनों के बावजूद स्वतंत्रता का लक्ष्य स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी, लेकिन इसके भीतर दो धाराएँ स्पष्ट थीं:
1. गरम दल: जो पूर्ण स्वतंत्रता और सांस्कृतिक भारत के पुनर्जनन के पक्षधर थे। इसमें डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार, स्वामी श्रद्धानंद, डाॅ. मूंजे, और विनायक दामोदर सावरकर जैसे विचारक शामिल थे।
2. नरम दल: जो अंतरिम स्वतंत्रता पर समझौता करने को तैयार थे।
इन दोनों धाराओं के बीच मतभेदों के कारण पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव कांग्रेस के अधिवेशनों में पारित नहीं हो पा रहा था। इसका लाभ अंग्रेज, मुस्लिम लीग, और भारत विरोधी तत्व उठा रहे थे।
मुस्लिम लीग, जो 1906 में स्थापित हुई थी, ने अंग्रेजों के संरक्षण में कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया। 1857 की क्रांति के दमन के बाद से ही इसकी पृष्ठभूमि तैयार होने लगी थी। मुस्लिम लीग ने न केवल कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया, बल्कि कांग्रेस के भीतर भी अपनी पैठ बनाकर निर्णयों को अपने पक्ष में करने की रणनीति अपनाई। मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नेता दोहरी सदस्यता के साथ कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों में सक्रिय थे। इससे हिन्दू समाज में विखराव और भटकाव बढ़ता गया।
डाॅ. हेडगेवार: राष्ट्रवादी चेतना के प्रणेता
ऐसी विषम परिस्थितियों में डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखी। उनका जन्म 1 अप्रैल 1889 को नागपुर में हुआ था। बचपन से ही उनके भीतर राष्ट्रवादी भावना प्रबल थी। दो घटनाएँ उनके बाल्यकाल की हैं, जो उनकी दृढ़ता और संकल्पशीलता को दर्शाती हैं:
1. सीताबार्डी किला और यूनियन जैक: बालक केशव को अंग्रेजों का यूनियन जैक झंडा स्वीकार नहीं था। उन्होंने अपने मित्रों के साथ मिलकर किले तक सुरंग खोदने और भगवा ध्वज फहराने की योजना बनाई, हालाँकि इसे बाद में रोक दिया गया।
2. महारानी विक्टोरिया की मिठाई का बहिष्कार: केवल आठ वर्ष की आयु में, जब स्कूल में महारानी विक्टोरिया के जन्मदिन पर मिठाई बाँटी गई, केशव ने उसे कूड़े में फेंक दिया। इस घटना के कारण उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया।
इन घटनाओं से स्पष्ट है कि डाॅ. हेडगेवार का अंतर्मन बचपन से ही राष्ट्रवादी चेतना से ओतप्रोत था। उन्होंने अपनी शिक्षा के दौरान कलकत्ता में अनुशीलन समिति के साथ कार्य किया और क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। वहाँ उन्होंने संत तुकाराम, महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के साहित्य का अध्ययन किया। इस अध्ययन ने उनके विचारों को और पुष्ट किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन
1920 के दशक में पाँच ऐसी घटनाएँ घटीं, जिन्होंने संघ के गठन को अनिवार्य बना दिया:
1. लोकमान्य तिलक का निधन (1920): तिलक के निधन से गरम दल कमजोर हुआ और अहिंसक आंदोलन प्रभावी हो गया।
2. असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन का समावेश: कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन को समर्थन देकर कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया।
3. मालाबार में हिन्दुओं का नरसंहार (1921): मालाबार में हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों ने सामाजिक असुरक्षा को उजागर किया।
4. असहयोग आंदोलन की अचानक वापसी: गांधीजी द्वारा आंदोलन की वापसी से राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं में निराशा फैली।
5. मालाबार हत्याकांड पर कांग्रेस की चुप्पी: कांग्रेस ने मालाबार के अपराधियों को दंडित करने की माँग नहीं उठाई।
इन घटनाओं ने डाॅ. हेडगेवार को यह समझने के लिए प्रेरित किया कि केवल स्वतंत्रता संग्राम पर्याप्त नहीं है। समाज को संगठित, सशक्त, और चैतन्य करना आवश्यक है। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि स्वतंत्रता के साथ-साथ हिन्दू समाज में स्वत्वबोध और राष्ट्रीय चेतना का जागरण भी जरूरी है।
1925 की विजयदशमी को, डाॅ. हेडगेवार ने अपने घर पर समविचारी मनीषियों के साथ एक बैठक बुलाई। इस बैठक में संगठन का नाम तय करने के लिए कई सुझाव आए, जैसे “महाराष्ट्र स्वयंसेवक संघ”, “जरीपटका मंडल”, और “भारतोद्धारक मंडल”। लेकिन डाॅ. हेडगेवार ने स्पष्ट किया कि संगठन का दायरा केवल महाराष्ट्र तक सीमित नहीं होगा, बल्कि यह समस्त भारत के लिए होगा। अंततः, सर्वसम्मति से संगठन का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रखा गया।
संघ का दर्शन और संकल्प
संघ की स्थापना के साथ डाॅ. हेडगेवार ने एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा:
> “आज हम सभी अपनी संगठना का शुभारम्भ कर रहे हैं। दुर्बल शरीर में विचार भी दुर्बल ही होते हैं। एक ज्योति से घर का अँधेरा दूर होता है, हर घर में ज्योति जले तो पूरे देश का अँधेरा दूर होता है। हम आज अपने सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के समक्ष अखंड नन्हा दीप प्रज्वलित कर रहे हैं।”
उन्होंने भगवा ध्वज को संगठन का गुरु घोषित किया, जो सनातन मूल्यों और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक है। संघ का उद्देश्य केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था, बल्कि यह समाज के शारीरिक, मानसिक, और बौद्धिक सशक्तिकरण के साथ-साथ हिन्दू राष्ट्रवोध को स्थापित करना था।
संघ की यात्रा: चुनौतियाँ और उपलब्धियाँ
पिछले सौ वर्षों में संघ ने अनेक चुनौतियों का सामना किया। कूटरचित प्रपंचों, असत्य आरोपों, और प्रतिबंधों के बावजूद वह अपने संकल्प पर अडिग रहा। आज यह विश्व का सबसे विशाल संगठन है, जो न केवल भारत में, बल्कि वैश्विक स्तर पर सांस्कृतिक जागरण का प्रतीक बन चुका है।
संघ की शाखाएँ, स्वयंसेवकों के दैनिक समागम, और सामाजिक सेवा के कार्यों ने समाज को संगठित और सशक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह संगठन व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण, और राष्ट्र निर्माण की त्रयी को साकार करने में निरंतर सक्रिय है।
निष्कर्ष
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना केवल एक संगठन का गठन नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और राष्ट्रीय जागरण का महा अभियान था। डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार ने उस समय की विषम परिस्थितियों में एक ऐसी ज्योति प्रज्वलित की, जो आज विश्व को प्रकाशित कर रही है। संघ की यह शताब्दी यात्रा सनातन मूल्यों, राष्ट्रीय गौरव, और सामाजिक एकता का प्रतीक है। यह एक ऐसा संगठन है, जो अपने संकल्प, दृढ़ता, और सेवा भाव के साथ न केवल भारत, बल्कि विश्व के लिए प्रेरणा स्रोत बना हुआ है।
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