मरु महोत्सव में जैसलमेर की संस्कृति पर सूफियाना तमाचा


 

मरु महोत्सव में जैसलमेर की संस्कृति पर सूफियाना तमाचा

पहले तो बता दूं कि सूफिज्म भी इस्लामी आक्रमण ही है बस नाम अलग है। कम्युनिस्ट लोग फैज की प्रसिद्ध  गजल गाते हैं "नाम रहेगा अल्लाह का" तो वे वास्तव में इस्लाम की प्रशंसा में फतेह मक्का के मजहबी गीत ही गाते हैं, कहीं कोई धर्मनिरपेक्षता नहीं है। जैसलमेर में 10 फरवरी की रात मरुमेला के उपलक्ष्य में रंगारंग कार्यक्रम हुआ। ज्योति नूरान नामक कोई गुमनाम सतही "कथित सिंगर" बुलाई गई जिसने सबसे पहले अल्ला हू का 15 मिनट नॉनस्टॉप पारायण करवाया। मै गारंटी से कहता हूँ, इसके मुंह से भारत माता की जय या वंदेमातरम बुलवाओ, पहली बात, इसे उच्चारण भी ढंग से नहीं आएगा और यदि बोल भी गई तो लिबर्ल्स को मूर्च्छा आ जायेगी। दूसरा गीत अली अली था। न कभी अली जैसलमेर आये न ही उनका यहाँ की संस्कृति में कोई योगदान है। जब सिंगर यह तय करके आयी हो कि जैसलमेर अब इस्लामिक कंट्री बन गया है या बनाना है तो वह गा सकती है। उसने गाया भी। 



प्रशासन के अधिकारियों सहित तमाम जनता अली के लिए ताली बजाती रही। तीसरा गीत ख्वाजा मेरे ख्वाजा था। वही अपने अजमेर वाले मोइनुद्दीन जी, जिनकी मजार भी किसी हिन्दू उपासना स्थल को तोड़कर बनाई गई है, जिस अजमेर दरगाह के खादिम कांग्रेस के लीडर रहे हैं और सभ्रांत घरों की छात्राओं के अश्लील फ़ोटो लेकर ब्लैकमेल करने का कुख्यात प्रकरण भी उस खादिम के नाम है जो 90 के दशक में काफी चर्चित रहा था। यही नहीं, उदयपुर के कन्हैया टेलर की दर्दनाक लाइव हत्या करने वाले हत्यारों का भी इसी अजमेर से कनेक्शन है। एक और गीत गाया गया, मै तेरे पांव की जूती नी। गायिका यह मान चुकी है कि जैसलमेर में लोग स्त्री को पैर की जूती समझते हैं, एक उतार कर दूसरी पहनते हैं और अब वह यहाँ के निवासियों को उपदेश दे रही है।  उसे यह नहीं पता कि पैर की जूती समझना अरबी कल्चर है। वहां 1400 वर्षों से ऐसा प्रावधान है कि औरत खेती है, महिलाओं की गवाही आधी मानी जाती है। 


जैसलमेर सतीत्व और मां आवड़ जी की भूमि है। मरु भूमि में मालण बाई, सच्चियाय माता, भटियाणी जी, और सात बहिनों सहित आवड़ जी की घर घर में देवी के रूप में पूजा होती है। एक सिरफिरी गायिका आयी और पूरे जैसलमेर को तमाचा मार गई, वह भी तब जब सत्ता में  भाजपा है, धिक्कार है ऐसी व्यवस्था को। विगत 75 वर्षों में संस्कृति के नाम पर जिस प्रकार इस्लामी, मजहबी और तालिबानी कुंठाओं को इंजेक्ट किया गया है, अब न मरु बचा न मेला। जब आयोजकों का मन मैला होता है, धन को अपव्यय करना होता है, कमीशन को पिछले दरवाजे से लेना होता है, अपने सिस्टम को बाईपास कर एजेंटों के भरोसे बंदरबांट करनी होती है तो उसमें से जो सड़ांध निकलती है वह विगत माघ शुक्ल त्रयोदशी को  शहीद पूनमसिंह स्टेडियम में हुआ वह प्रकट होता है। त्रयोदशी वीर आलाजी की तिथि है। मरुमेला में उनका कहीं नाम नहीं। शहीद पूनमसिंह भाटी देश की रक्षा के लिए शहीद हुए, उन्हीं के स्मृति स्थल  में कार्यक्रम हो रहा है, कहीं कोई गीत नहीं। विगत 7 वर्षों से गाय, गोचर, ओरण और मरु पारिस्थितिकी तंत्र के लिए कुछ महानुभाव रात दिन भूत की तरह लगे हैं, घर फूंक तमाशा कर रहे हैं, मरु मेला में किसी ने उन्हें याद नहीं किया।


याद क्या रहा? अल्लाहु अकबर।  अली अली। ख़्वाजा मेरे ख्वाजा। मै तेरे पांव की जूती। और आयोजक इसे मेला कहते है। लोगों को बताया जा रहा है कि यह मरु संस्कृति का कार्यक्रम है।


बेचारे लंगे चीख चीखकर रह गए, स्टेज नहीं मिला। इतनी सारी कालबेलिया डांसर हैं, कहीं कोई जिक्र नहीं। इतना बड़ा मंच और अवसर था, स्थानीय प्रतिभाओ को उभारने का अवसर था, कुछ भी नहीं हुआ। कभी सूफी तो कभी पंजाबी। किसी ने सच कहा है, जैसलमेर ऊंघता शहर है, कोई भी थप्पड़ मारकर भाग सकता है।

(एडवोकेट लालू सिंह सोढा जैसलमेर)

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