गुरु शिष्य सम्बन्ध

आज के समय में सामान्य व्यक्ति भी यह कहता है कि हमारे जमाने में आचार्य-छात्र सम्बन्ध जितने मधुर थे, वैसे आज नहीं हैं। हम अपने आचार्यों का बहुत अधिक सम्मान करते थे, कभी भी उनकी आज्ञा नहीं टालते थे। किन्तु आज तो ये सम्बन्ध बहुत अधिक बिगड़ गये हैं। अपने अध्यापक का आदर करना तो दूर, उनकी अवहेलना करना, उनके सामने बोलना तथा उनके साथ अभद्र व्यवहार करना सामान्य बात हो गई है, जो बिल्कुल अपेक्षित नहीं है।

ऐसे समय में नई पीढ़ी को आचार्य और छात्रों के मध्य सम्बन्ध ऐसे क्यों हो गये हैं? कैसे होने चाहिए? दोनों के सम्बन्ध आत्मीय होना क्यों आवश्यक है? तथा ऐसे सम्बन्धों के परिणाम क्या होते हैं? इत्यादि बातों की जानकारी करवाना छात्र, आचार्य एवं देश तीनों के लिए हितकारी है।

दोनों के मध्य ज्ञानसम्बन्ध हो

आचार्य और छात्र के मध्य आदान-प्रदान होता है। आचार्य ज्ञान देता है और छात्र ज्ञान लेता है। शिक्षा के माध्यम से ज्ञान का आदान-प्रदान होता है। इससे ही ज्ञान परम्परा बनती है। अर्थात् ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होता है। इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से दो पीढ़ियों में ज्ञान सम्बन्ध बनता है और ज्ञान परम्परा का प्रवाह अखण्ड चलता रहता है।

आज इस मूल बात को भुला दिया गया है। शिक्षा के माध्यम से ज्ञान सम्बन्ध बनाने के स्थान पर व्यावसायिक सम्बन्ध बना लिए हैं। ज्ञान का स्थान पैसों ने ले लिया है। जब सम्बन्धों का आधार पैसा होता है तो दोनों पक्ष अपना-अपना हित साधने में लगते हैं। जब किसी भी एक पक्ष को लगता है कि मेरा शोषण हो रहा है तब वह दूसरे पक्ष से द्वेष करने लगता है, और उनके सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। आज आचार्य व छात्र के मध्य सम्बन्ध बिगड़ने का मुख्य कारण यही है।

प्रवचन दोनों को जोड़ता है

तैत्तिरीय उपनिषद में शिक्षा प्रक्रिया को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है –

आचार्य पूर्वरूपम्। अन्तेवासी उत्तर रूपम्। विद्या सन्धि:। प्रवचनम् सन्धानम्।

आचार्य पूर्वरूप है। अन्तेवासी(छात्र) उत्तर रूप है। विद्या सन्धि है और प्रवचन सन्धान है।

यहाँ आचार्य पूर्व पीढ़ी का तथा छात्र आगामी पीढ़ी का प्रतिनिधि है। इन दोनों पीढ़ियों को जोड़ने वाला प्रवचन अर्थात् अध्ययन-अध्यापन है। और विद्या सन्धि है अर्थात् परिणाम है।

इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में विशेष बात यह है कि अध्ययन और अध्यापन दो स्वतन्त्र क्रियाएँ नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलुओं के समान परस्पर जुड़े हुए, एक ही हैं। इसी तरह आचार्य और छात्र भी परस्पर एक ही हैं।

दोनों में आत्मिक सम्बन्ध हों

आचार्य और छात्र का सम्बन्ध आत्मिक होना चाहिए, आज की तरह भौतिक या व्यावसायिक नहीं। शिक्षा ज्ञान का क्षेत्र है और आत्मा ज्ञानस्वरूप है। दोनों के मध्य ज्ञान का आदान-प्रदान होता है, इसलिए यह सम्बन्ध आत्मिक ही बनता है। परन्तु आज ज्ञान को आत्मा से न जोड़कर पैसों से जोड़ दिया है। यही कारण है कि दोनों के सम्बन्ध आत्मिक के स्थान पर व्यावसायिक हो गये हैं, इसलिए पुन: आत्मिक सम्बन्ध को सुदृढ़ करना तथा इसे सही स्वरूप में स्थापित करना चाहिए ।

दोनों का अध्ययन तेजस्वी हो

जैसे अध्ययन और अध्यापन का विचार अलग-अलग नहीं किया जाता, एक साथ किया जाता है। ठीक वैसे ही आचार्य और छात्र का विचार भी एक साथ ही किया जाता है। एक साथ मिलकर किये जाने वाले अध्ययन-अध्यापन कार्य के सम्बन्ध में उपनिषद का शान्ति पाठ यह कहता है –

ॐ सहनाववतु। सहनौभुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै। ओम् शान्ति:शान्ति: शान्ति: ।।

हे परमात्मा! आप हम दोनों (गुरु-शिष्य) की साथ-साथ रक्षा करें, दोनों का साथ-साथ पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ बल सम्पादन करें। हम दोनों का अध्ययन तेजस्वी हों। हम परस्पर द्वेष न करें। सर्वत्र शान्ति रहे।

आचार्य और छात्र की इस संयुक्त प्रार्थना में दोनों को शिक्षा का कार्य मिलकर करना है। दोनों का अध्ययन तेजस्वी होना चाहिए। और दोनों आपस में ईर्ष्या न करें। जब द्वेष भाव से शिक्षा कार्य होता है, तब विद्या दूषित होती है और सबको हानि पहुँचाती है। विद्या को शुद्ध और पवित्र बनाये रखने के लिए आचार्य और छात्र के अन्त:करण और व्यवहार शुद्ध होने चाहिए।

आचार्य और छात्र का परस्पर भाव

जैसे लोक मान्यता में कहावत है –

“बेटा बाप से सवाया” अर्थात् पिता से पुत्र सवाया होना चाहिए। यही अपेक्षा शिक्षा क्षेत्र से भी है कि गुरु से शिष्य आगे जाना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब एक आचार्य ज्ञान के क्षेत्र में तेजस्वी छात्र के हाथों पराजित होने की चाह रखे। आचार्य के लिए कहा भी है –

“शिष्यात् इच्छेत् पराजयम्।”

इसी प्रकार छात्र के लिए अपेक्षित है कि वह अपने आचार्य को भगवान सदृश मानें। इसलिए ही गुरु को साक्षात परब्रह्म मानने वाला श्लोक हमारे साहित्य में है –

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु:गुरुर्देवो महेश्वर:।

गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम:।।

गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही शिव है। गुरु ही साक्षात परमात्मा है, उस गुरु को नमन करता हूँ। जब अपने आचार्य के लिए शिष्य के मन में श्रद्धा का भाव एवं उनके प्रति पूर्ण समर्पण होता है, तभी गुरु उसे अपने से सवाया गढ़ता है। आज हम ऐसे ही गुरु और शिष्य की आदर्श जोड़ी के जीवन प्रसंगों से प्रेरणा प्राप्त करेंगे।

रामकृष्ण और नरेन्द्र

बात है 13 सितम्बर 1893 की। आज से लगभग 127 वर्ष पहले, अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म सम्मेलन हो रहा था। भारत का एक युवा संन्यासी उस धर्म सभा में अपनी बात रखने के लिए खड़ा हुआ। उसने सभा को सम्बोधित किया, “मेरे प्यारे अमेरिकन भाइयों और बहनो!” सम्बोधन सुनते ही तालियों की जो गड़गड़ाहट शुरु हुई वह दो मिनट तक बजती ही रही। इस युवा संन्यासी ने गुलाम देश भारत के श्रेष्ठ तत्त्वज्ञान की दुन्दुभी बजाई और आध्यात्मिक विजय प्राप्त की।

ये आध्यात्मिक विजय प्राप्त करने वाले युवा संन्यासी थे स्वामी विवेकानन्द और इन्हें इस योग्य बनाने वाले गुरु थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस। माँ काली के अनन्य भक्त रामकृष्ण परमहंस गुरु थे तो विश्व विजयी विवेकानन्द उनके शिष्य थे। गुरु और शिष्य की यह जोड़ी अपने आप में अनूठी है।

रामकृष्ण वैसे तो माँ काली के सामान्य भक्त माने जाते थे परन्तु उन्होंने सभी धर्मों की पद्धति के अनुसार साधना कर उनके भगवानों को भी पाया था। और इस बात की प्रत्यक्ष अनुभूति की थी कि ईश्वर एक ही है, लोग उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। उनमें अनेक सिद्धियाँ थीं, किन्तु वे तो सिद्धियों से ऊपर उठ चुके थे। उन्होंने समाधी की अन्तिम स्थिति प्राप्त करली थी, इसलिए वे परमहंस कहलाये।

उनके शिष्य विवेकानन्द जिनके बचपन का नाम था, नरेन्द्र। शिष्य के नाते नरेन्द्र कैसा था? विलक्षण बुद्धि का धनी, तर्क की कसौटी पर कसकर मानने वाला। जो भी मिलता उससे सीधा प्रश्न पूछते, “आपने भगवान को देखा है ?” कोई भी इस प्रश्न का उत्तर हाँ देने वाला नहीं मिला। ऐसे तर्कवान नरेन्द्र को जब पहली बार एक पागल से दिखने वाले पूजारी ने रामकृष्ण ने कहा – “हाँ, मैने देखा है। क्या मुझे भी दिखा सकते हो? हाँ, दिखा सकता हूँ। परन्तु तुम्हें दक्षिणेश्वर आना पड़ेगा।”

बस यहीं से चुम्बकीय आकर्षण का प्रभाव चालू हो गया।अब नरेन्द्र का प्रतिदिन दक्षिणेश्वर जाने का क्रम शुरु हो गया। कभी नरेन्द्र नहीं जा पाता तो रामकृष्ण व्याकुल हो जाते। एक बार अज्ञानवश नरेन्द्र गुरु से रूठ गये, परन्तु अधिक समय तक रूठे रह न सके। ऐसा अनन्य प्रेम था दोनों में, एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता था।

नरेन्द्र एक दिन रामकृष्ण के सामने बैठे ईश्वर विषयक चर्चा कर रहे थे। उन्होंने अचानक नरेन्द्र के भ्रूमध्य में अपना अंगूठा रखा, अंगूठे का स्पर्श होते ही नरेन्द्र चीखा मुझे बचाओ-मुझे बचाओ! ज्योंही अंगूठा हटा त्योंही नरेन्द्र शान्त व सहज हो गया। उसने पूछा आप मुझे कहाँ ले जा रहे थे? गुरु ने कहा, बस इतने में घबरा गया। अरे! तुझे तो बहुत आगे तक जाना है। यह था, एक गुरु का तार्किक शिष्य को बोया, अनुभूत उत्तर।

ऐसे ही एक दिन नरेन्द्र ने घर की आर्थिक कठिनाइयों से तंग आकर गुरु से कहा, आप तो माँ काली से बात करते हो। जरा मेरे लिए भी माँ से कहो ना कि घर में दो समय के भोजन की व्यवस्था ठीक हो जाय। गुरु जानते थे कि इसका मूर्ति में विश्वास नहीं है। इसलिए उन्होंने कहा, मुझे क्यों कहता है? जा तू ही माँ से माँग ले। नरेन्द्र को यों माँ से माँगने में संकोच हो रहा था, परन्तु गुरु ने उसे विश्वास दिलाया कि जा, माँ तुझे अवश्य देगी। गुरु के आग्रह पर नरेन्द्र पहली बार माँ से माँगने गया, परन्तु अर्थ के स्थान पर माँ से ज्ञान, भक्ति और वैराग्य माँगकर लौट आया। गुरु ने उसे तीन बार भेजा, परन्तु उसने तीनों ही बार ज्ञान, भक्ति व वैराग्य ही माँगा। इस प्रकार उन्होंने नरेन्द्र के हृदय में श्रद्धा का बीज बोया।

एक शिष्य के रूप में नरेन्द्र ने भी गुरु सेवा में कोई कमी नहीं रखी। गुरु के अन्तिम समय में उन्हें कैंसर का फोड़ा हो गया था। उसमें से दुर्गन्ध युक्त पीप निकला करती थी। इसलिए दूसरे शिष्य उनकी सेवा से कतराते और दूर ही रहते। एक दिन नरेन्द्र ने सब शिष्यों के सामने एक प्याले में फोड़े में से पीप निकाली और बिना नाक-भौंह सिकोड़े वह पीप पी गये। शिष्य यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह गये। ऐसी अनन्य गुरु भक्ति थी नरेन्द्र में। तभी तो रामकृष्ण ने अपना सबकुछ नरेन्द्र में संक्रान्त कर दिया।

गुरु ने नरेन्द्र को ज्ञान की भट्टी में तपा कर ऐसा विवेकानन्द बना दिया कि वे शिकागो विश्वधर्म सम्मेलन में उस वेदान्त रूपी फौलादी तलवार के द्वारा अन्य मत-मतन्तरों के अज्ञान जनित तर्कों को काट कर भारतीय वेदान्त की पताका फहराने में विजयी हुए।

गुरु का नरेन्द्र को गढ़ने का ऐसा ही एक प्रसंग ध्यान में आता है। रामकृष्ण परमहंस सभी शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। वे समझा रहे थे कि जीवन में सही अवसर आते हैं, किन्तु व्यक्ति ज्ञान व साहस की कमी के कारण उस अवसर का लाभ नहीं उठा पाता। शिष्यों को उनकी बात का मर्म समझ में नहीं आ रहा था। परमहंस यह बात जान गये। उन्होंने नरेन्द्र से पूछा, मान ले तू मक्खी है। तेरे सामने अमृत से भरा कटोरा रखा है। बता तू उस कटोरे में कूदेगा या किनारे बैठ कर अमृतपान करेगा? नरेन्द्र बोला मैं किनारे बैठकर अमृतपान करूँगा, यदि बीच में कूद पड़ा तो डूबकर मर जाऊँगा। सभी शिष्य नरेन्द्र का उत्तर सुनकर सन्तुष्ट हुए और उसकी प्रशंसा करने लगे। परन्तु रामकृष्ण जोर से हँसे, अरे मुर्ख! जिस अमृत को पीकर तू अमर हो जायेगा, उसमें डूबने से डरता है? जब अमृत में डूबने का अवसर मिल रहा है, तब मृत्यु का डर क्यों? अमृत पीने से तू वैसे ही अमर हो जायेगा। देखो! कुछ लोग तो अज्ञानवश अवसर को पहचान ही नहीं पाते। जो कुछ पहचान लेते हैं, वे साहस न होने से उसका लाभ नहीं ले पाते। तब जाकर शिष्यों को गुरु की बात समझ में आई।

यदि हम भी आध्यात्मिक क्षेत्र में सफल होना चाहते हैं तो हमें उस काम के प्रति पूर्ण समर्पण करने का, सही अवसर पहचानने का और लाभ लेने का साहस होना चाहिए। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण के बिना ज्ञान और साहस नहीं मिलते।

नरेन्द्र जैसे शिष्य और रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु की जब जोड़ी बनती है, तभी विश्व में भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा होती है। आओ!हम इस अमूल्य गुरु-शिष्य परम्परा को जागृत करें और माँ भारती को फिर से जग में शिरमौर बनायें।

लेखक - वासुदेव प्रजापति

शिक्षाविद

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