तिरुमला तिरुपति देवस्थानम ने क्यों निकाले गैर हिन्दू कर्मचारी
तिरूमला तिरूपति देवस्थानम का निर्णय: एक तार्किक और तथ्यात्मक विश्लेषण
भारत में हिंदू धर्म को "वसुधैव कुटुंबकम्" की अवधारणा के आधार पर विश्व-कल्याणकारी धर्म माना जाता है। हिंदू धार्मिक, शैक्षणिक और सामाजिक ट्रस्टों में न केवल हिंदुओं को, बल्कि अन्य समुदायों के लोगों को भी लाभ प्राप्त होता रहा है। कई गैर-हिंदू व्यक्तियों को इन ट्रस्टों में महत्वपूर्ण पदों पर भी रखा जाता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि हिंदू समाज समावेशी और सहिष्णु रहा है।
तिरूमला तिरूपति देवस्थानम का निर्णय: न्यायसंगत या पक्षपातपूर्ण?
हाल ही में तिरूमला तिरूपति देवस्थानम (TTD) द्वारा 18 गैर-हिंदू कर्मचारियों को अनुशासनात्मक कार्यवाही के तहत धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में भाग लेने से रोका गया। इस निर्णय को लेकर AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने आलोचना की और इसे पाखंड करार दिया। लेकिन यदि हम इस मुद्दे का गहराई से विश्लेषण करें, तो यह निर्णय पूरी तरह तार्किक और न्यायसंगत प्रतीत होता है।
हिंदू ट्रस्टों की समावेशी नीति बनाम अन्य मजहबी ट्रस्टों की संकीर्णता
हिंदू धर्म के अधिकांश धार्मिक ट्रस्ट, चाहे वे मंदिर हों या अन्य धर्मार्थ संस्थान, सभी के लिए खुले होते हैं। यहाँ तक कि इनमें दूसरे धर्मों के लोग भी महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किए जाते हैं और समान रूप से लाभान्वित होते हैं। इसके विपरीत, मुस्लिम और ईसाई धार्मिक ट्रस्टों की नीतियाँ इस दृष्टिकोण से अलग होती हैं:
- अन्य समुदायों का निषेध: मुस्लिम और ईसाई ट्रस्टों का प्रबंधन लगभग पूरी तरह से उनके ही समुदाय के लोगों के हाथों में रहता है।
- सहायता की दिशा: ये ट्रस्ट केंद्र और राज्य सरकारों से सहायता प्राप्त करते हैं, लेकिन इनके लाभार्थियों की सूची में प्रायः अन्य धर्मों के लोग शामिल नहीं होते।
- धार्मिक पद्धति पर प्रतिबद्धता: अक्सर यह देखा गया है कि अन्य धर्मों के अनुयायी हिंदू धार्मिक संस्थानों से लाभ तो प्राप्त करते हैं, परंतु उनकी धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं को स्वीकार करने से इनकार करते हैं या उनका अनादर करते हैं।
- TTD का निर्णय न्यायसंगत क्यों है?
- धार्मिक संस्था की पवित्रता का संरक्षण: यदि कोई व्यक्ति किसी धार्मिक संस्थान में कार्यरत है, तो उसे उस धर्म की परंपराओं और मान्यताओं का सम्मान करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी संस्था के मूल सिद्धांतों से सहमत नहीं है, तो वह वहाँ कार्य करने के लिए बाध्य नहीं है।
- पाखंड का अंत: जब हिंदू मंदिरों और धार्मिक ट्रस्टों में दूसरे धर्मों के लोग कार्य कर सकते हैं, लेकिन दूसरे धर्मों की संस्थाएँ हिंदुओं को स्थान नहीं देतीं, तो यह असमानता एकतरफा सहिष्णुता का उदाहरण बन जाती है।
- धार्मिक अस्मिता की रक्षा: अन्य धर्मों के अनुयायी यदि हिंदू धार्मिक संस्थाओं में काम करते हैं और फिर भी उनकी मान्यताओं का अनादर करते हैं, तो यह न केवल अनुचित है, बल्कि हिंदू धर्म और उसकी परंपराओं के प्रति असंवेदनशीलता भी दर्शाता है।
अन्य हिंदू ट्रस्टों को क्या सीख लेनी चाहिए?
TTD का निर्णय अन्य हिंदू धार्मिक और सामाजिक ट्रस्टों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है। हिंदू संस्थानों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे केवल उनकी परंपराओं और मूल्यों के प्रति आदर रखने वाले व्यक्तियों को ही प्रमुख पदों पर रखें। यह निर्णय केवल धार्मिक नहीं, बल्कि प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी उचित है, क्योंकि इससे संस्थानों की मूल पहचान और उद्देश्य की रक्षा होती है।
निष्कर्ष
तिरूमला तिरूपति देवस्थानम का निर्णय न तो भेदभावपूर्ण है और न ही असहिष्णु। यह केवल उस असंतुलन को ठीक करने की दिशा में एक कदम है, जो हिंदू धार्मिक संस्थानों की असीम सहिष्णुता और अन्य मजहबी संस्थानों की संकीर्णता के कारण उत्पन्न हुआ है। यदि सभी धर्मों के लोग समानता की बात करते हैं, तो उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि हिंदू धार्मिक ट्रस्टों को भी अपनी परंपराओं की रक्षा करने का उतना ही अधिकार है, जितना अन्य धर्मो को है।
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